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केमद्रुम योग

जानिए क्या हैं केमद्रुम योग ??
क्या होते हैं केमद्रुम योग के प्रभाव और परिणाम ??

भारतीय वैदिक ज्योतिष में केमद्रुम योग ज्योतिष में चंद्रमा से निर्मित एक महत्वपूर्ण योग बताया गया है| वृहज्जातक में वाराहमिहिर के अनुसार यह योग उस समय होता है जब चंद्रमा के आगे या पीछे वाले भावों में ग्रह न हो अर्थात चंद्रमा से दूसरे और चंद्रमा से द्वादश भाव में कोई भी ग्रह नहीं हो. यह योग इतना अनिष्टकारी नहीं होता जितना कि वर्तमान समय के ज्योतिषियों ने इसे बना दिया है. व्यक्ति को इससे भयभीत नहीं होना चाहिए क्योंकि यह योग व्यक्ति को सदैव बुरे प्रभाव नहीं देता अपितु वह व्यक्ति को जीवन में संघर्ष से जूझने की क्षमता एवं ताकत देता है, जिसे अपनाकर जातक अपना भाग्य निर्माण कर पाने में सक्षम हो सकता है और अपनी बाधाओं से उबर कर आने वाले समय का अभिनंदन कर सकता है |

चन्द्र को मन का कारक कहा गया है. सामान्यत: यह देखने में आता है कि मन जब अकेला हो तो वह इधर-उधर की बातें अधिक सोचता है और ऎसे में सोच सकारात्मक होनी चाहिए अच्छे कार्य में ध्यान लगाए ऐसे जातक अपने बलबूते पर कामयाब होते हैं किसी के अघीन रहना उनके लिए अच्छा नहीं रहता ऐसे जातक देखी है कि यह सृजनातमक होते हैं कलाकार होते हैं कलात्मक होतैे हैं कुछ बुराइयां से बच कर रहे जैसे जुआ सटा शराब आदिकेमद्रुम योग के बारे में ऐसी मान्यता है कि यह योग संघर्ष और अभाव ग्रस्त जीवन देता है. इसीलिए ज्योतिष के अनेक विद्वान इसे दुर्भाग्य का सूचक कहते हें. परंतु लेकिन यह अवधारणा पूर्णतः सत्य नहीं है.
केमद्रुम योग से युक्त कुंडली के जातक कार्यक्षेत्र में सफलता के साथ-साथ यश और प्रतिष्ठा भी प्राप्त करते हैं. वस्तुतः अधिकांश विद्वान इसके नकारात्मक पक्ष पर ही अधिक प्रकाश डालते हैं. यदि इसके सकारात्मक पक्ष का विस्तार पूर्वक विवेचन करें तो हम पाएंगे कि कुछ विशेष योगों की उपस्थिति से केमद्रुम योग भंग होकर राजयोग में परिवर्तित हो जाता है. इसलिए किसी जातक की कुंडली देखते समय केमद्रुम योग की उपस्थिति होने पर उसको भंग करने वाले योगों पर ध्यान देना आवश्यक है तत्पश्चात ही फलकथन करना चाहिएव्यवहार में ऐसा पाया गया है कि कुंडली में गजकेसरी, पंचमहापुरुष जैसे शुभ योगों की अनुपस्थिति होने पर भी केमद्रुम योग से युक्त कुंडली के जातक कार्यक्षेत्र में सफलता के साथ-साथ यश और प्रतिष्ठा भी प्राप्त करते हैं। ऐसे में क्या कहा जाये। क्या शास्त्रों में लिखी बातों को असत्य या निर्मूल कहकर केमद्रुम योग की परिभाषा पर प्रश्न चिह्न लगा दिया जाये।

वस्तुतः सत्यता यह है कि केमद्रुम योग के बारे में बताने वाले अधिकांश विद्वान इसके नकारात्मक पक्ष पर ही अधिक प्रकाश डालते हैं। जो पूर्णतः असैद्धांतिक एवं अवैज्ञानिक है। यदि हम इसके सकारात्मक पक्ष का गंभीरतापूर्वक विवेचन करें तो हम पाएंगे कि कुछ विशेष योगों की उपस्थिति से केमद्रुम योग भंग होकर राजयोग में परिवर्तित हो जाता है।

ऐसे योगों का उल्लेख भी मिलता है जिनके प्रभाव से केमद्रुम योग भंग होकर राजयोग में बदल जाता है। केमद्रुम योग को भंग करने वाले प्रमुख योग निम्नलिखित हैं।जब कुण्डली में लग्न से केन्द्र में चन्द्रमा या कोई ग्रह हो तो केमद्रुम योग भंग माना जाता है. योग भंग होने पर केमद्रुम योग के अशुभ फल भी समाप्त होते है.

कुण्डली में बन रही कुछ अन्य स्थितियां भी इस योग को भंग करती है, जैसे चंद्रमा सभी ग्रहों से दृष्ट हो या चंद्रमा शुभ स्‍थान में हो या चंद्रमा शुभ ग्रहों से युक्‍त हो या पूर्ण चंद्रमा लग्‍न में हो या चंद्रमा दसवें भाव में उच्‍च का हो या केन्‍द्र में चंद्रमा पूर्ण बली हो अथवा कुण्डली में सुनफा, अनफा या दुरुधरा योग बन रहा हो, तो केमद्रुम योग भंग हो जाता है.
यदि चन्द्रमा से केन्द्र में कोई ग्रह हो तब भी यह अशुभ योग भंग हो जाता है और व्यक्ति इस योग के प्रभावों से मुक्त हो जाता है.

कुछ अन्य शास्त्रों के अनुसार- यदि चन्द्रमा के आगे-पीछे केन्द्र और नवांश में भी इसी प्रकार की ग्रह स्थिति बन रही हो तब भी यह योग भंग माना जाता है. केमद्रुम योग होने पर भी जब चन्द्रमा शुभ ग्रह की राशि में हो तो योग भंग हो जाता है. शुभ ग्रहों में बुध्, गुरु और शुक्र माने गये है. ऎसे में व्यक्ति संतान और धन से युक्त बनता है तथा उसे जीवन में सुखों की प्राप्ति होती है.

इसके इलावा जब गुरु और चंद्र की दृष्टि एक ही भाव पर पढ़ रही हो या त्रिकोण में सभी ग्रहो का होना जहां केंद्र में सभी ग्रह हो तब भी यह योग भंग हो जाता है केमद्रुम योग जिसे एक अशुभ योग माना जाता है, यदि किसी प्रकार भंग हो जाता है तो यह पूर्ण रूप से राजयोग में बदल जाता है। इसलिए किसी जातक की कुंडली देखते समय केमद्रुम योग की उपस्थिति होने पर उसको भंग करने वाले उपर्युक्त योगों पर निश्चय ही ध्यान देना चाहिए। उसके बाद ही फलकथन करना चाहिए।

संबु होरा प्रकाश, जातक परिजात, जातक तत्वम जैसे शास्त्रों में कुछ ऐसे योग वर्णित हैं जो जातक को निर्धन बना देते है, जिनके कारण व्यक्ति को जीवन में कभी न कभी कंगाली का सामना करना ही पड़ता है। ऐसा ही एक अनिष्ट योग है “केमद्रुम योग”।
ऐसा देखा गया है कि प्रबल केमद्रुम योग वाले व्यक्ति की मृत्यु के बाद परिजनों के पास अंतिम संस्कार करने के भी पैसे नहीं होते। शास्त्रों में केमद्रुम योग पर श्लोक कहा गया है।
श्लोक: कान्तान्नपान्ग्रहवस्त्रसुह्यदविहीनो, दारिद्रय-दुघःखगददौन्यमलैरूपेतः। प्रेष्यः खलः सकल लोक विरूद्धव्रत्ति, केमद्रुमेभवतिपार्थिववंशजोऽपि॥
अर्थात यदि व्यक्ति की कुंडली में प्रबल केमद्रुम योग स्थित हो तो वो व्यक्ति जीवनसाथी, अन्न, घर, वस्त्र व बंधु से विहीन होकर दुखी, रोगी, दरिद्र होता है चाहे उसका जन्म किसी राजा के यहां ही क्यों ना हुआ हो।

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सबसे बड़ा दरिद्री योग “केमद्रुम योग ”

किसी भी लग्न की कुंडली मैं चन्द्र जिस राशी मैं होता हैं , उसके दूसरे और बारहवें भाव मैं सूर्य के अलावा अन्य कोई ग्रह न हो तो केमद्रुम योग की सृष्टी होती हैं !अर्थात चन्द्र के दोनों और मंगल , बुध , गुरु , शुक्र ,या शनि मैं से कोई न कोई ग्रह होना आवश्यक हैं (इस योग मैं राहू केतु की मान्यता नहीं हैं क्योंकि ये मात्र छाया ग्रह हैं ) एस नहीं होने पर दुर्भाग्य के प्रतीक केमद्रुम योग बनता हैं
इस योग के विषय मैं जातक पारिजात नामक ग्रन्थ मैं कहा गया हैं कि–

“योगे केमद्रुमे प्रापो यस्मिन कश्चि जातके!
राजयोगा विशशन्ति हरि दृष्टवां यथा द्विषा: !!

अर्थात— जन्म के समय यदि किसी कुंडली मैं केमद्रुम योग हो और उसकी कुंडली मैं सेकड़ो राजयोग भी हो तो वह भी विफल हो जातें हैं ! अर्थात केमद्रुम योग अन्य सैकड़ों राजयोगो का प्रभाव उसी प्रकार समाप्त कर देता हैं , जिस प्रकार जंगल मैं सिंह हाथियों का प्रभाव समाप्त कर देता हैं !

इस योग के जन्मकुंडली मैं विद्यमान होने पर जातक स्त्री, संतान , धन , घर , वाहन , कार्य व्यवसाय, माता, पिता, अन्य रिश्तेदार अर्थात सभी प्रकार के सुखों से ही होकर ईधर, उधर व्यर्थ भटकने के लिए मजबूर होता हैं ! जबकि इस भयंकर योग का भंग होना भी पाया जाता हैं जब जन्मकुंडली मैं निम्न स्थिति हों —

(1) यदि चन्द्रमा केंद्र स्थानों — प्रथम , चतुर्थ , सप्तम या दशम भाव मैं हो
(2) चन्द्र कि उच्च राशी वृष या चन्द्र की अपनी राशी कर्क केंद्र मैं हो !
(3) चन्द्र के साथ अन्य कोई भी ग्रह एक ही भाव मैं विराजित हो !
(4) कई ग्रहों की दृष्टी चन्द्र पर हो !

उक्त मैं से कोई एक योग होने पर भी केमद्रुम योग भंग हो जाता हैं ! किन्तु लगभग सभी देवग्य और वर्तमान ज्योतिष महानुभाव एक मत से स्वीकार करते हैं और अनुभव मैं भी यही आता हैं कि जन्मकुंडली के केमद्रुम योग और केमद्रुम भंग योग दोनों होने पर जातक को सम्बंधित ग्रहों कि दशा , अन्तर्दशा मैं दोनों ही प्रकार के फलो का सामना करना पड़ता हैं ! इस योग का अध्ययन करने के लिए मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्री रामचन्द्र कि कुंडली के द्वारा अच्छी तरह किया जा सकता हैं !

श्री रामचन्द्र का जन्म कर्क लग्न मैं हुआ था गुरु एवं चन्द्र लग्न मैं , तीसरे भाव मैं राहू , चौथे भाव मैं शनि , सप्तम भाव मैं मंगल , नवम भाव मैं शुक्र , केतु , दशम भाव मैं सूर्य , एकादश भाव मैं बुध विराजित हैं |

कर्क लग्न वाला जातक स्वतः भाग्यशाली होतें हैं ! साथ ही लग्नस्थ चन्द्र के दोनों और द्वितीय और द्वादश भाव मैं कोई गृह नहीं हैं ! अत:केमद्रुम योग विद्यमान प्रतीत होता हैं ! इस योग के विपरीत चन्द्र की राशी कर्क स्वयं लग्न भाव मैं हैं ! साथ मैं ही स्वग्रही चन्द्र भी केंद्र मैं शक्तिशाली होकर विराजित हैं ! जिसके साथ ब्रहस्पति भी हैं !चन्द्र की उच्च राशी मकर भी सप्तम भाव स्थित केंद्र स्थान मैं ही हैं ! अर्थात केमद्रुम योग भंग की एक ,दो नहीं वरन समस्त शर्त विद्यमान हैं ! इन सबके अलावा केंद्र मैं ब्रहस्पति उच्च का होकर पंचमहायोगों मैं श्रेष्ठ ” हंस योग “,शनि उच्च का होने से शश योग , मंगल उच्च का होकर केंद्र मैं होने से चक योग को बताता हैं , इनके अलावा गुरु चन्द्र मिलकर ज्योतिष का सबसे महान गज केसरी योग भी बनता हैं साथ ही सूर्य भी अपनी उच्च राशी मैं होकर अपने कारक स्थान मैं उपस्थित हैं ! शुक्र भाग्य भाव मैं होकर अपनी उच्च राशी मैं हैं ! अर्थात इस प्रकार के महान योग किसी अलौकिक व्यक्तित्व की जन्म कुंडली मैं ही हो सकते हैं !
इन महान योगों के होने के बाद भी भगवन श्री राम के जीवन चरित्र पर इस भयानक योग के प्रभाव से इंकार कैसे किया जा सकता हैं ! उनके जीवन संघर्ष यात्रा मैं ही इस योग के मात्र आंशिक प्रभाव का विश्लेषण किया जा सकता हैं ! (हालाँकि अन्य राजभंग योग भी जन्मकुंडली मैं विद्यमान हैं ) इन सबके कारण भगवन श्री राम के राजतिलक के समय शनि महादशा मैं मंगल का अंतर चल रहा था , तब राजतिलक होते -होते श्री राम को वनवासी राम बनना पड़ा ! अर्थात हम जैसे लोगों के लिए तो इस योग का असर और भी भयानक होगा ! इस योग के होने पर इसका निराकरण आवश्यक हैं !

चंद्रमा चूँकि मन का कारक हैं इस लिए जब भी कोई मुसीबत , या असफलता मिलती हैं तो दूसरों की अपेक्षा इस योग के पीड़ित को कई गुना महसूस होती हैं ! इस योग के चलते थोड़ी सी असफलता से जातक ” डिप्रेशन ” एवं मानसिक रोगों का भी शिकार हो सकता हैं
इस योग के कारण जीवन मैं अधूरापन रहता हैं !
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केमद्रुम योग ***********
केमद्रुम योग को अत्यंत अशुभ फल देने वाला योग माना जाता है।लेकिन यह तर्क पूर्णतः सत्य नही है।यह योग सदैव अशुभ फल नही देता।यह योग जातक को जीवन में संघर्ष से जूझने की क्षमता प्रदान करता है।ज्योतिष में चंद्रमा मन का कारक होता है, जब कुंडली में चंद्रमा अकेला होता है अर्थात् चंद्रमा के साथ व चंद्रमा से दूसरे और बारहवें भाव में कोई ग्रह न हो तब ऐसी स्थिति में जातक का मन अकेलापन महसूस करता है। जिस कारण वह नकारात्मक बाते सोच कर चिन्ता करने की प्रवृत्ति बना लेता है।केमद्रुम योग में राहु केतु का कोई विचार नही किया जाता। केमद्रुम योग के विषय में यह धारणा बनी हुई है कि यह योग जातक को निर्धन बनाता है, दुःख देता है, पूर्णतः संघर्ष भरा जीवन देता है आदि जैसे अशुभ परिणाम देता है।लेकिन केमद्रुम के विषय में यह बात पूर्णतः सत्य नही है।यदि कुंडली में कई अन्य शुभ स्थितियां हो चंद्रमा पूर्ण बली हो तो यह योग अपना अशुभ परिणाम देने में सक्षम नही रह जाता। केमद्रुम योग भंग होने के कारण **************************
ज्योतिषाचार्य पंडित दयानन्द शास्त्री के अनुसार कुण्डकी में यदि लग्न से केंद्र में चंद्रमा या कोई शुभ ग्रह हो तो केमद्रुम योग भंग माना जाता है।कुंडली में बन रही कई शुभ व बली ग्रह स्थितियां इस योग को भंग करती है।जैसे, चंद्रमा शुभ ग्रहो से दृष्ट हो या चंद्रमा पूर्ण बली होकर शुभ स्थान पर हो। पूर्ण चंद्रमा लग्न में होने पर भी यह योग भंग हो जाता है। चंद्रमा केंद्र स्थान में उच्च का हो तो यह योग भंग हो जाता है। चंद्रमा से केंद्र में कोई शुभ बली ग्रह हो तब भी कही हद तक यह योग भंग हो जाता है।
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केमद्रुम योग को भंग कर राजयोग में परिवर्तित करने वाले उपर्युक्त योगों की सत्यता की पुष्टि महात्मा गांधी, नेल्सन मंडेला, जुल्फिकार अली भुट्टो, भैरों सिंह शेखावत, बिल गेट्स, देवानंद, राजकपूर, ऋषि कपूर, शत्रुध्न सिन्हा, पंडित दयानन्द शास्त्री,अमीषा पटेल, अजय देवगन, राहुल गांधी, शंकर दयाल शर्मा, ईजमाम उल हक, जवागल श्री नाथ, पीचिदंबरम, मेनका गांधी, वसुंधरा राजे, अर्जुन सिंह तथा अनुपम खेर आदि सुप्रसिद्ध जातकों की कुंडलियों में स्वतः कर सकते हैं।
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केमद्रुम योग से बचने के कुछ विशिष्ट उपायों व ग्रह शांति के बारे में—
1. घर की उत्तर दिशा में प्राण प्रतिष्ठा करवाकर 2.25 इंच लंबा पारद शिवलिंग स्थापित करवाएं व नित्य विधिवत पूजन कर शिव अमोघ कवच का पाठ करें।
2. तीर्थस्थल जहां प्राकृतिक जल स्रोत हो और नर्मदेश्वर शिवलिंग स्थापित हो उस शिवालय में चंद्रमा ग्रह की शांति करवाएं।
3. अगर प्राप्त हो जाए तो बाएं हाथ की कनिष्ठा उंगली में प्राकृतिक समुद्री मुक्ता मणि (नेचुरल सी पर्ल) धारण करें।
4. चित्रा नक्षत्र युक्त सोमवारी पूर्णिमा पड़ने पर संकल्प लेकर लगातार चार वर्ष प्रति माह शिव-पूर्णिमा का व्रत रखें।
5. कांच की बोतल में वर्षा के समय पर गिरने वाले बर्फ के ओले जमा करके घर की उत्तरपश्चिम दिशा में रखें।
6. घर की उत्तर-पश्चिम दिशा पूर्ण चंद्रमा का चित्र लगाएं जिसके चारों तरफ आठ ग्रह स्थापित हों।
7. प्रति सोम प्रदोष को गाय के कच्चे दूध से “नमक-चमक पाठ” के साथ सम्पूर्ण रुद्राभिषेक करें।
8. चांदी की चेन में प्राण प्रतिष्ठित एक-एक दाना 2मुखी + 13मुखी + 14मुखी रुद्राक्ष धारण करें।
9. दो-मुखी रुद्राक्ष की माला से मंत्र “ह्रीं ॐ नमः शिवाय ह्रीं” का नित्य 11 माला जाप करें।

जानिए वृषभ राशि में सूर्य जाने से बदलेगी किन लोगों की किस्मत–

सौरमंडल में मौजूद ग्रहों का हमारे जीवन पर कितना प्रभाव पड़ता है, यह वही समझ सकता है जिसने इन बदलावों को कभी महसूस किया हो। यकीन मानिए, जिस नक्षत्र में हम जन्म लेते हैं, उस समय मौजूद ग्रह सारे जीवन हमें प्रभावित करते हैं। अब यह प्रभाव सकारात्मक होने के साथ नकारात्मक भी हो सकता है। प्रत्येक ग्रह किसी एक राशि में कुछ समय तक रहता है। ज्योतिष शास्त्र के अनुसार एक राशि में प्रवेश करने पर ये ग्रह ना केवल उस राशि, वरन् अन्य सभी राशियों को प्रभावित करते हैं। आज हम सूर्य राशि के वृष राशि में प्रवेश करने की घटना पर चर्चा करने जा रहे हैं। 14 मई, 2017 सूर्य ग्रह, वृषभ राशि में प्रवेश करेंगे। सूर्य देव यहां पूरे एक महीने के लिए रहेंगे, और इसके बाद 15 जून को वृषभ राशि से निकलकर मिथुन राशि में प्रवेश करेंगे।

ज्योतिष में सूर्य को नवग्रहों के राजा की उपाधि दी गई है। प्राणी जगत के लिए यह ऊर्जा का केन्द्र है, इसलिए सूर्य को जगत की आत्मा कहा गया है। प्रत्येक जातक की कुंडली में सूर्य उनके पिता का प्रतिनिधित्व करता है इसलिए यह पितृ कारक भी होता है। 14 मई 2017 रविवार को रात्रि 11:11 बजे सूर्य मेष राशि से वृषभ राशि में प्रवेश करेगा और 15 जून 2017 गुरुवार को सुबह 05:47 पर वृषभ राशि से मिथुन राशि में गोचर करेगा। निश्चित ही सूर्य के इस गोचर का प्रभाव सभी 12 राशियों पर होगा।

मेष का सूर्य लोगों को अप्रैल से ही सुख-सुविधाओं का जमकर आभास करा रहा है। 13 अप्रैल से शुरू हुई मेष संक्रांति ब्राह्मणों और धर्म-कर्म करने वालों सहित अन्य वर्ग के लोगों के लिए लाभप्रद है। सूर्य की यह युक्ति हालांकि सितंबर माह तक रहेगी,लेकिन 14 मई को सूर्य के वृष राशि में प्रवेश के करने के साथ ही कुछ दिनों के लिए यह लोगों को परेशान भी करेगा। वर्तमान में शनि धुन राशि में गोचर कर रहा है।

मेष का सूर्य, शनि का धनु राशि में गोचर लोगों के लिए अच्छे दिन लेके आए हैं। ग्रहों इन युक्तियों से उद्योगों एवं निवेशों के लाभ में अप्रत्याशित वृद्धि होगी तो रोजगार के अवसर भी मिलेंगे। स्वास्थ्य सेवाओं नवीन तकनीक का प्रभाव ग्रामीण क्षेत्रों तक पहुंचेगा। रियल और इन्फ्रा सेक्टर में गिरावट का दौर रहेगा। भूमि-मकानों की कीमतों में कमी के साथ-साथ किराये में भी कमी आएगी।

वर्तमान में ऐसी है ग्रहों की चाल—

सूर्य वर्तमान में मेष राशि में चल रहा है। यह 14 मई को रात 10.55 बजे वृष राशि में प्रवेश करेगा। वर्तमान वृष राशि विचरण कर रहा मंगल 26 मई को मिथुन राशि में प्रवेश करेगा। मेष का बुध तीन जून को वृष में जाएगा। वर्तमान में कन्या राशि में विचरण कर रहा वक्र गति का गुरु 9 जून को कन्या राशि में मार्ग गति पकड़ लेगा तथा 12 सितंबर को कन्या राशि को छोड़कर तुला राशि में प्रवेश करेगा। मीन का शुक्र 31 मई को मेष राशि में प्रवेश करेगा। धनु राशि में वक्री हुआ शनि 25 अगस्त तक रहेगा।

जानिए क्या और केसा रहेगा यह रहेगा इस परिवर्तन का राशिगत प्रभाव—
(यह एक महीना वृषभ राशि के जातकों के साथ अन्य ग्यारह राशि के लिए कैसा रहेगा)–

मेष: कुछ कठिनाइयां, छोटे भाई बहनों से विवाद।
वृष : पिता की सेहत में गिरावट, 21 जून के बाद समय अच्छा।
मिथुन : नाम एवं प्रसिद्धि मिलेगी, कानून से जुड़े मामलों में सफलता।
कर्क : परिवार को लेकर परेशानी, वाद-विवाद बढ़ सकता है।
सिंह : आय में वृद्धि की संभावना, प्रसिद्धि बढ़ेगी।
कन्या : मां की सेहत में गिरावट सकती है। स्वास्थ्य का ध्यान रखें।
तुला : बड़ी उपलब्धि मिल सकती है, प्रोपर्टी से लाभ होगा।
वृश्चिक-: मानसिक तनाव, स्वास्थ्य में गिरावट।
धनु :- स्वास्थ्य में गिरावट, भाई-बहन के जीवन में समृद्धि।
मकर :- जून में उन्नति के दरवाजे खुलेंगे, लंबी यात्रा के योग।
कुंभ:- सपने सच होंगे, जून के बाद कार्य में अधिक मन लगेगा।
मीन :- खर्चे होंगे, मां की सेहत में गिरावट आएगी।

जानिए नमक के प्रयोग द्वारा कैसे करें वास्तु दोष निवारण—

जानिए नमक के प्रयोग द्वारा कैसे करें वास्तु दोष निवारण—

प्रिय पाठकों/मित्रों, वैसे तो नमक का इस्तेमाल तो हम खाने में करते ही है। वहीं वास्तु शास्त्र में कहा जाता है कि नमक के कुछ उपाय से घर की नकारात्मक उर्जा दूर होती है। इसे नजर दोष उतारने के ल‌िए भी काम में लिया जाता है। दाल या सब्जी में नमक ज्यादा हो जाए तो नुकसान और कम हो तो भी नुकसान। नमक हमारी आयु बढ़ाता भी है और नमक ही आयु घटाता भी है। नमक का उपयोग करना बहुत कम लोग जानते हैं। नमक कई प्रकार के होते हैं: सेंधा नमक (पहाड़ी नमक), समुद्री नमक, काला नमक, सामान्य नमक आदि। ज्योतिष शास्त्र के अनुसार नमक को चंद्र और शुक्र का प्रतिनिधि माना जाता है। नमक में अद्भुत शक्ति होने के कारण घर में सकारात्मक ऊर्जा का आगमन होता है। इसके प्रयोग से धन और स्वास्थ्य के साथ-साथ राहु-केतु के अशुभ प्रभाव भी नष्ट होते हैं।कुछ लोग नमक को राहु का प्रतीक भी मानते हैं। राहु नकारात्मक उर्जा और कीट-कीटाणुओं का भी कारक माना गया है। ज‌िनसे घर में सुख समृद्ध‌ि और स्वास्‍थ्य प्रभाव‌ित होता है।

नमक का इस्तेमाल नजर दोष उतारने के ल‌िए भी क‌िया जाता है। अगर आपको लगता है क‌ि आपको या आपके पर‌िवार के क‌िसी सदस्य को नजर लगने पर एक चुटकी नमक उनके ऊपर से तीन बार घुमाने के बाद बाहर फेंक दें या पानी में बहा दें। ऐसा करने से नजर दोष समाप्त हो जाता है।

के बर्तन में नमक भरकर घर के क‌िसी कोने में रखने से घर में सकारात्मक उर्जा का संचार होता है। राहु, केतु की दशा चल रही हो या जब मन में बुरे-बुरे व‌िचार या डर पैदा हो रहे हों तब यह प्रयोग बहुत लाभ देता है। नमक को चंद्र और शुक्र का प्रतिनिधि माना जाता है। नमक को यदि आप किसी स्टील या लोहे के बर्तन में रखते हैं तो यह चंद्र और शनि का मिलन होगा जो कि बहुत ही घातक सिद्ध होता है। यह रोग और शोक का कारण बन जाता है। नमक को किसी प्लास्टिक के पात्र में भी नहीं रखना चाहिए। नमक को सिर्फ कांच के पात्र में रखने से ही यह बुरा असर नहीं देता है।

में गजब की शक्त‌ि होती है जो न स‌िर्फ आपके घर को सकारात्मक उर्जा से भर देती है बल्क‌ि आपके घर में सुख समृद्ध‌ि भी बढ़ाने का काम करती है। लेक‌िन इसके ल‌िए स‌िर्फ खाने में नमक नहीं कई दूसरे कामों में भी नमक का प्रयोग करना होगा।

नमक के कुछ उपाय:—

01.—-वास्तु व‌िज्ञान के अनुसार शीशे के प्याले में नमक भरकर शौचालय और स्नान घर में रखना चाह‌िए इससे वास्तुदोष दूर होता है। इसका कारण यह है क‌ि नमक और शीशा दोनों ही राहु के वस्तु हैं और राहु के नकारात्मक प्रभाव को दूर करने का काम करते हैं। राहु नकारात्मक उर्जा और कीट-कीटाणुओं का भी कारक माना गया है। ज‌िनसे घर में सुख समृद्ध‌ि और स्वास्‍थ्य प्रभाव‌ित होता है।
02.—- आपके घर के वास्तुदोष को खत्म करने के लिए कांच की कटोरी में नमक डाल कर शौचालय और स्नान घर में रखें। नमक और कांच राहु की वस्तुएं होने के कारण उनके नकारात्मक प्रभाव को समाप्त करते हैं। राहु को नेगेटिव एनर्जी और कीट-कीटाणुओं का भी सूचक माना जाता है। ये घर के सुख, धन और स्वास्‍थ्य को प्रभाव‌ित करते हैं।
03.—- कांच के पात्र में नमक डालकर घर के किसी भी कोने में रख दें। ऐसा करने से घर में सकारात्मक ऊर्जा का प्रवाह होता है। राहु, केतु की दशा या मन में बुरे व‌िचार अौर डर उत्पन्न होने पर यह उपाय लाभकारी सिद्ध होता है।
04.—शीशे के बर्तन में नमक भरकर घर के क‌िसी कोने में रखने से घर में सकारात्मक उर्जा का संचार होता है। राहु, केतु की दशा चल रही हो या जब मन में बुरे-बुरे व‌िचार या डर पैदा हो रहे हों तब यह प्रयोग बहुत लाभ देता है।
05.— रात को सोते समय पानी में एक चुटकी नमक म‌िलकार हाथ पैर धोने से तनाव दूर होता है और नींद अच्छी आती है। राहु और केतु के अशुभ प्रभाव भी इससे दूर होते हैं।
06.— अनुसार टुकड़े वाले नमक को लाल रंग के वस्त्र में बांधकर पोटली बनाकर घर के मेन गेट पर लटकाने से बुरी शक्तियां घर में प्रवेश नहीं कर सकती। व्यापार में प्रगति के लिए कार्यस्थल के मुख्य द्वार पर अौर लॉकर के ऊपर पोटली लटकाने से लाभ मिलता है।
07.— रात्रि से पूर्व पानी में चुटकी भर नमक मिलाकर हाथ-पांव धोने से चिंताअों से छुटकारा मिलता है अौर अच्छी नींद आती है। राहु एवं केतु के अमंगल प्रभाव भी नष्ट होते हैं।
08.— डली वाला नमक लाल रंग के कपड़े में बांधकर घर के मुख्य द्वार पर लटकाने से घर में क‌िसी बुरी ताकत का प्रवेश नहीं होता है। कारोबर में उन्नत‌ि के ल‌िए अपने व्यापार‌िक प्रत‌िष्ठान के मुख्य द्वार पर और त‌िजोरी के ऊपर लटकाना लाभप्रद माना गया है।
10.—- घर में रॉक साल्ट लैंप रखने से सकारात्मक ऊर्जा का प्रवाह होता है। वास्तु के अनुसार इस उपाय से घरेलू जीवन में समन्वय अौर सुख-समृद्धि बढ़ती है। रोगों का भी नाश होता है।
11.— सप्ताह में एक बार नमक मिले पानी से बच्चों को स्नान करवाने से नजर दोष अौर स्वास्‍थ्य संबंधी परेशानियों में कमी आती है।
12.—डली वाला नमक लाल रंग के कपड़े में बांधकर घर के मुख्य द्वार पर लटकाने से घर में क‌िसी बुरी ताकत का प्रवेश नहीं होता है। कारोबर में उन्नत‌ि के ल‌िए अपने व्यापार‌िक प्रत‌िष्ठान के मुख्य द्वार पर और त‌िजोरी के ऊपर लटकाना लाभप्रद माना गया है।
13.—विशेष सावधानी–वास्तुशास्त्री पंडित दयानन्द शास्त्री के अनुसार नमक को कभी भी सीधे सीधे किसी व्यक्ति के हाथ में नहीं देना चाहिए । नमक का पैकेट भी देने से बचना चाहिए। ऐसा मानते हैं कि इससे व्यक्ति के संबंध खराब होते हैं। हर कहीं का नमक या नमकीन न खाएं इस बात का हमेशा ध्यान रखें। मजबूरी में या दबाव में किसी का नमक मत खाइये इससे आपका बड़ा नुकसान हो सकते है। नमक उसी का खाइये जिसके संस्कार अच्छे हों और जो धर्म सम्मत आचरण करता हो।
14.—रात को सोते समय पानी में एक चुटकी नमक म‌िलकार हाथ पैर धोने से तनाव दूर होता है और नींद अच्छी आती है। राहु और केतु के अशुभ प्रभाव भी इससे दूर होते हैं।
15.— सप्ताह में एक बार गुरुवार को छोड़कर पोंछा लगाते समय पानी में थोड़ा साबुत खड़ा नमक (समुद्री नमक) मिला लेना चाहिए। इस उपाय से भी घर की नकारात्मक ऊर्जा नष्ट हो जाती है। वातावरण की पवित्रता बढ़ती है। इससे लक्ष्मी प्राप्ती का मार्ग खुलेगा और घर में बरकत भी बनी रहेगी।

पंडित दयानन्द शास्त्री

पंचक का प्रभाव और महत्त्व

—जानिए ज्योतिष में पंचक का प्रभाव और महत्त्व —

प्रिय पाठकों/मित्रों,किसी भी काम को मंगलमय ढ़ग से पूरा करने के लिए यह बहुत अवश्यक है की उसे शुभ समय पर किया जाए। ज्योतिषशास्त्री कहते हैं की सभी नक्षत्रों का अपना-अपना प्रभाव होता है। कुछ शुभ फल देते हैं तो कुछ अशुभ लेकिन कुछ ऐसे काम होते हैं जो कुछ नक्षत्रों में नहीं करने चाहिए।

जब चंद्रमा गोचर में कुंभ और मीन राशि से होकर गुजरता है तो यह समय अशुभ माना जाता है इस दौरान चंद्रमा धनिष्ठा से लेकर शतभिषा, पूर्वा भाद्रपद, उत्तरा भाद्रपद एवं रेवती से होते हुए गुजरता है इसमें नक्षत्रों की संख्या पांच होती है इस कारण इन्हें पंचक कहा जाता है। कुछ कार्य ऐसे हैं जिन्हे विशेष रुप से पंचक के दौरान करने की मनाही होती है। ज्योतिषशास्त्र के अनुसार अशुभ और हानिकारक नक्षत्रों के योग को ही पंचक कहा जाता है इसलिये पंचक को ज्योतिष शुभ नक्षत्र नहीं मानता अतः सावधानी रखें,ज्योतिषशास्त्र के अनुसार ग्रहों और नक्षत्र के अनुसार ही किसी कार्य को करने या न करने के लिये समय तय किया जाता है जिसे हम शुभ या अशुभ मुहूर्त कहते हैं। ज्योतिषशास्त्र के अनुसार मान्यता है कि शुभ मुहूर्त में आरंभ होने वाले कार्यों के परिणाम मंगलकारी होते हैं जबकि शुभ मुहूर्त को अनदेखा करने पर कार्य में बाधाएं आ सकती हैं और उसके परिणाम अपेक्षाकृत तो मिलते नहीं बल्कि कई बार बड़ी क्षति होने का खतरा भी रहता है।

भारतीय ज्योतिष में पंचक को अशुभ माना गया है। इसके अंतर्गत धनिष्ठा, शतभिषा, उत्तरा भाद्रपद, पूर्वा भाद्रपद व रेवती नक्षत्र आते हैं। पंचक के दौरान कुछ विशेष काम करने की मनाही है। इस बार शुक्रवार (21 अप्रैल) की सुबह लगभग 10.14 बजे से पंचक शुरू हो गया था, जो 25 अप्रैल, मंगलवार की रात लगभग 09.03 तक रहेगा। उज्जैन के ज्योतिषी पंडित दयानन्द शास्त्री के अनुसार, शनिवार से शुरू होने के कारण ये मृत्यु पंचक कहलाएगा। पंचक कितने प्रकार का होता है और इसमें कौन से काम नहीं करने चाहिए, पंचक के दौरान दक्षिण दिशा में यात्रा नही करनी चाहिए, क्योंकि दक्षिण दिशा, यम की दिशा मानी गई है। इन नक्षत्रों में दक्षिण दिशा की यात्रा करना हानिकारक माना गया है।

पंचक में आने वाले नक्षत्रों में शुभ कार्य हो सकते हैं। पंचक में आने वाला उत्तराभाद्रपद नक्षत्र वार के साथ मिलकर सर्वार्थसिद्धि योग बनाता है, वहीं धनिष्ठा, शतभिषा, पूर्वा भाद्रपद व रेवती नक्षत्र यात्रा, व्यापार, मुंडन आदि शुभ कार्यों में श्रेष्ठ माने गए हैं।

पंचक को भले ही अशुभ माना जाता है, लेकिन इस दौरान सगाई, विवाह आदि शुभ कार्य भी किए जाते हैं। पंचक में आने वाले तीन नक्षत्र पूर्वा भाद्रपद, उत्तरा भाद्रपद व रेवती रविवार को होने से आनंद आदि 28 योगों में से 3 शुभ योग बनाते हैं, ये शुभ योग इस प्रकार हैं- चर, स्थिर व प्रवर्ध। इन शुभ योगों से सफलता व धन लाभ का विचार किया जाता है।

1. रोग पंचक—
उज्जैन के ज्योतिषी पंडित दयानन्द शास्त्री के अनुसार रविवार को शुरू होने वाला पंचक रोग पंचक कहलाता है। इसके प्रभाव से ये पांच दिन शारीरिक और मानसिक परेशानियों वाले होते हैं। इस पंचक में किसी भी तरह के शुभ काम नहीं करने चाहिए। हर तरह के मांगलिक कार्यों में ये पंचक अशुभ माना गया है।

2. राज पंचक
उज्जैन के ज्योतिषी पंडित दयानन्द शास्त्री के अनुसार सोमवार को शुरू होने वाला पंचक राज पंचक कहलाता है। ये पंचक शुभ माना जाता है। इसके प्रभाव से इन पांच दिनों में सरकारी कामों में सफलता मिलती है। राज पंचक में संपत्ति से जुड़े काम करना भी शुभ रहता है।

3. अग्नि पंचक
मंगलवार को शुरू होने वाला पंचक अग्नि पंचक कहलाता है। इन पांच दिनों में कोर्ट कचहरी और विवाद आदि के फैसले, अपना हक प्राप्त करने वाले काम किए जा सकते हैं। इस पंचक में अग्नि का भय होता है। इस पंचक में किसी भी तरह का निर्माण कार्य, औजार और मशीनरी कामों की शुरुआत करना अशुभ माना गया है। इनसे नुकसान हो सकता है।

4. मृत्यु पंचक
शनिवार को शुरू होने वाला पंचक मृत्यु पंचक कहलाता है। नाम से ही पता चलता है कि अशुभ दिन से शुरू होने वाला ये पंचक मृत्यु के बराबर परेशानी देने वाला होता है। इन पांच दिनों में किसी भी तरह के जोखिम भरे काम नहीं करना चाहिए। इसके प्रभाव से विवाद, चोट, दुर्घटना आदि होने का खतरा रहता है।

5. चोर पंचक
शुक्रवार को शुरू होने वाला पंचक चोर पंचक कहलाता है। इस पंचक में यात्रा करने की मनाही है। इस पंचक में लेन-देन, व्यापार और किसी भी तरह के सौदे भी नहीं करने चाहिए। मना किए गए कार्य करने से धन हानि हो सकती है।

6. इसके अलावा बुधवार और गुरुवार को शुरू होने वाले पंचक में ऊपर दी गई बातों का पालन करना जरूरी नहीं माना गया है। इन दो दिनों में शुरू होने वाले दिनों में पंचक के पांच कामों के अलावा किसी भी तरह के शुभ काम किए जा सकते हैं|

नक्षत्रों का शुभ फल–
मुहूर्त चिंतामणि ग्रंथ के अनुसार पंचक के नक्षत्रों का शुभ फल–

1. घनिष्ठा और शतभिषा नक्षत्र चल संज्ञक माने जाते हैं। इनमें चलित काम करना शुभ माना गया है जैसे- यात्रा करना, वाहन खरीदना, मशीनरी संबंधित काम शुरू करना शुभ माना गया है।
2. उत्तराभाद्रपद नक्षत्र स्थिर संज्ञक नक्षत्र माना गया है। इसमें स्थिरता वाले काम करने चाहिए जैसे- बीज बोना, गृह प्रवेश, शांति पूजन और जमीन से जुड़े स्थिर कार्य करने में सफलता मिलती है।
3. रेवती नक्षत्र मैत्री संज्ञक होने से इस नक्षत्र में कपड़े, व्यापार से संबंधित सौदे करना, किसी विवाद का निपटारा करना, गहने खरीदना आदि काम शुभ माने गए हैं।

केसा होता है पंचक के नक्षत्रों का अशुभ प्रभाव—

1.धनिष्ठा नक्षत्र में आग लगने का भय रहता है।
2. शतभिषा नक्षत्र में वाद-विवाद होने के योग बनते हैं।
3. पूर्वाभाद्रपद रोग कारक नक्षत्र है यानी इस नक्षत्र में बीमारी होने की संभावना सबसे अधिक होती है।
4. उत्तरा भाद्रपद में धन हानि के योग बनते हैं।
5. रेवती नक्षत्र में नुकसान व मानसिक तनाव होने की संभावना होती है।
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पंचक में न करें ये 5 काम
1. पंचक में चारपाई बनवाना भी अच्छा नहीं माना जाता। ऐसा करने से कोई बड़ा संकट खड़ा हो सकता है।
2. पंचक के दौरान जिस समय घनिष्ठा नक्षत्र हो उस समय घास, लकड़ी आदि जलने वाली वस्तुएं इकट्ठी नहीं करना चाहिए, इससे आग लगने का भय रहता है।
3. पंचक के दौरान दक्षिण दिशा में यात्रा नही करनी चाहिए, क्योंकि दक्षिण दिशा, यम की दिशा मानी गई है। इन नक्षत्रों में दक्षिण दिशा की यात्रा करना हानिकारक माना गया है।
4. पंचक के दौरान जब रेवती नक्षत्र चल रहा हो, उस समय घर की छत नहीं बनाना चाहिए, ऐसा विद्वानों का कहना है। इससे धन हानि और घर में क्लेश होता है।
5. पंचक में शव का अंतिम संस्कार करने से पहले किसी योग्य पंडित की सलाह अवश्य लेनी चाहिए। यदि ऐसा न हो पाए तो शव के साथ पांच पुतले आटे या कुश (एक प्रकार की घास) से बनाकर अर्थी पर रखना चाहिए और इन पांचों का भी शव की तरह पूर्ण विधि-विधान से अंतिम संस्कार करना चाहिए, तो पंचक दोष समाप्त हो जाता है। ऐसा गरुड़ पुराण में लिखा है।
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ये शुभ कार्य कर सकते हैं पंचक में—

पंचक में आने वाले नक्षत्रों में शुभ कार्य हो सकते हैं। पंचक में आने वाला उत्तराभाद्रपद नक्षत्र वार के साथ मिलकर सर्वार्थसिद्धि योग बनाता है, वहीं धनिष्ठा, शतभिषा, पूर्वा भाद्रपद व रेवती नक्षत्र यात्रा, व्यापार, मुंडन आदि शुभ कार्यों में श्रेष्ठ माने गए हैं।
पंचक को भले ही अशुभ माना जाता है, लेकिन इस दौरान सगाई, विवाह आदि शुभ कार्य भी किए जाते हैं। पंचक में आने वाले तीन नक्षत्र पूर्वा भाद्रपद, उत्तरा भाद्रपद व रेवती रविवार को होने से आनंद आदि 28 योगों में से 3 शुभ योग बनाते हैं, ये शुभ योग इस प्रकार हैं- चर, स्थिर व प्रवर्ध। इन शुभ योगों से सफलता व धन लाभ का विचार किया जाता है।
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पंचक में कुछ कार्य विशेष रूप से निषिद्ध कहे गए हैं-
* पंचकों में शव का क्रियाकर्म करना निषिद्ध है क्योकि पंचक में शव का अंतिम संस्कार करने पर कुटुंब या पड़ोस में पांच लोगों की मृत्यु हो सकती है।

* पंचकों के पांच दिनों में दक्षिण दिशा की यात्रा वर्जित कही गई है क्योंकि दक्षिण मृत्यु के देव यम की दिशा मानी गई है।

* चर संज्ञक धनिष्ठा नक्षत्र में अग्नि का भय रहने के कारण घास लकड़ी ईंधन इकट्ठा नहीं करना चाहिए।

* मृदु संज्ञक रेवती नक्षत्र में घर की छत डालना धन हानि व क्लेश कराने वाला होता है।

* पंचकों के पांच दिनों में चारपाई नहीं बनवानी चाहिए।
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जानिए पंचक दोष दूर करने के उपाय-
— लकड़ी का समान खरीदना अनिवार्य होने पर गायत्री यग्य करें।

—-दक्षिण दिशा की यात्रा अनिवार्य हो तो हनुमान मंदिर में पांच फल चढ़ाएं।

—-मकान पर छत डलवाना अनिवार्य हो तो मजदूरों को मिठाई खिलाने के पश्चात छत डलवाएं।

—पलंग या चारपाई बनवानी अनिवार्य हो तो पंचक समाप्ति के बाद ही इस्तेमाल करें। पंचक के दौरान इस दौरान कोई पलंग, चारपाई, बेड आदि नहीं बनवाना चाहिये माना जाता है कि पंचक के दौरान ऐसा करने से बहुत बड़ा संकट आ सकता है।

—शव का क्रियाकर्म करना अनिवार्य होने पर शव दाह करते समय कुशा के पंच पुतले बनाकर चिता के साथ जलाएं। पंचक में यदि किसी की मृत्यु हो जाती है तो उसका अंतिम संस्कार विशेष विधि के तहत किया जाना चाहिये अन्यथा पंचक दोष लगने का खतरा रहता है जिस कारण परिवार में पांच लोगों की मृत्यु हो सकती है। इस बारे में गुरुड़ पुराण में विस्तार से जानकारी मिलती है इसमें लिखा है कि अंतिम संस्कार के लिये किसी विद्वान ब्राह्मण की सलाह लेनी चाहिये और अंतिम संस्कार के दौरान शव के साथ आटे या कुश के बनाए हुए पांच पुतले बना कर अर्थी के साथ रखें और शव की तरह ही इन पुतलों का भी अंतिम संस्कार पूरे विधि-विधान से करना चाहिये।

—पंचक शुरु होने से खत्म होने तक किसी यात्रा की योजना न बनाएं मजबूरी वश कहीं जाना भी पड़े तो दक्षिण दिशा में जाने से परहेज करें क्योंकि यह यम की दिशा मानी जाती है। इस दौरान दुर्घटना या अन्य विपदा आने का खतरा आप पर बना रहता है।

विशेष सावधानी– किसी भी उपाय को आरंभ करने से पहले अपने इष्ट देव का मंत्र जाप अवश्य करें।

जानिए घर में नई बहू के आने से क्यों आने लगती है पारिवारिक रिश्तों में दरार

—जानिए घर में नई बहू के आने से क्यों आने लगती है पारिवारिक रिश्तों में
दरार —

प्रिय पाठकों/मित्रों,यह सही है की कई बार हमें ऐसा देखने और सुनने में आता
है, कि किसी परिवार में नई बहू के गृह-प्रवेश के बाद से ही घर में अचानक खूब
तरक्की होने लगी या अचानक ही घर के हालात बिगड़ने लगे। ऐसे बदले हालात की
स्थिति में उस घर में हो रहे अच्छे या बुरे का भागी नई बहू को माना जाने लगता
है।
जब किसी घर में लड़के की शादी होने वाली होती है तो नव दम्पत्ति के लिए घर में
सुविधा बढ़ाने के लिए और उनकी नीजता को ध्यान में रखते हुए घर में बेडरुम,
टाॅयलेट-बाथरुम इत्यादि का निर्माण किया जाता है।

घर में हुए इस नव निर्माण के कारण घर के वास्तु में भी परिवर्तन हो जाता है। कई बार
यह नव-निर्माण वास्तुनुकूल हो जाता है तो कई बार यह नव-निर्माण वास्तु विपरीत
हो जाता है। वास्तुनुकूल निर्माण होने पर निश्चित ही घर में सुख-समृद्धि बढ़ती
है, जबकि वास्तु विपरीत निर्माण होने पर घर में विभिन्न प्रकार की समस्याएं
होने लगती हैं। अज्ञानतावश घर वाले घर में हुए वास्तु परिवर्तन से मिलने वाले
अच्छे या बुरे परिणामों का कारण नई बहू को मानने लगते हैं।

जहां चार बर्तन होंगे वह आपस में टकराएंगे ही लेकिन सुखी संपन्न घर
में कई बार बहू आने से गृह क्लेश होने लगते हैं। क्या आप जानते हैं इसका कारण
घर में उत्पन्न ह

जानिए क्यों हैं हनुमान मंगलकर्ता और विघ्नहर्ता…??

हनुमान जयन्ती- 11 अप्रैल 2017 पर विशेष ( हनुमान जन्मोत्सव पर विशेष)–

—- जानिए क्यों हैं हनुमान मंगलकर्ता और विघ्नहर्ता…??

प्रिय पाठकों/मित्रों, परंपरागत रूप से हनुमान को बल, बुद्धि, विद्या, शौर्य और निर्भयता का प्रतीक माना जाता है। संकटकाल में हनुमानजी का ही स्मरण किया जाता है। वह संकटमोचन कहलाते हैं। ‘हनुमान’ शब्द का ह ब्रह्मा का, नु अर्चना का, मा लक्ष्मी का और न पराक्रम का द्योतक है। हनुमान को शिवावतार अथवा रुद्रावतार भी माना जाता है। ज्योतिषाचार्य पंडित दयानन्द शास्त्री ने बताया की रुद्र आँधी-तूफान के अधिष्ठाता देवता भी हैं और देवराज इंद्र के साथी भी। विष्णु पुराण के अनुसार रुद्रों का उद्भव ब्रह्माजी की भृकुटी से हुआ था।हनुमानजी वायुदेव अथवा मारुति नामक रुद्र के पुत्र थे।

हनुमान जन्मोत्सव (जयंती) का त्यौहार बालाजी के भक्तो के लिए सबसे बड़ा त्यौहार है | हनुमान जयंती राम भक्त हनुमान के जन्मोस्त्सव के रूप में बड़ी धूम धाम से हनुमान भक्तो के द्वारा मनाई जाती है | इस वर्ष 2017 में हनुमान जयन्ती 11 अप्रैल को मंगलवार के दिन को मनाई जाएगी ||
ज्योतिषाचार्य पंडित दयानन्द शास्त्री के अनुसार महावीर हनुमान को सबसे शक्तिशाली देवता के रूप में पूजा जाता है |श्री हनुमान जयंती त्यौहार इन्होने भगवान श्री राम के चरणों में अपने जीवन को समर्प्रीत कर दिया और राम भक्ति में इनका कोई सानी नहीं है | ये अमर और चिरंजीवी है | इन्होने असंभव कार्यो को चुटकी भर पल में समूर्ण कर दिया है , अतः इन्हे संकट मोचक के नाम से भी पुकारा जाता है | इनकी भक्ति करने से हनुमान कृपा के द्वारा मनुष्य को शक्ति और समर्पण प्राप्त होता है | इनकी भक्ति से अच्छा भाग्य और विदुता भी प्राप्त होती है | शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा को संकटमोचन हनुमान का जन्‍म हुआ था। पवनपुत्र हनुमान के जन्‍मोत्‍सव को पूरे देश में हर्षोल्‍लास के साथ हनुमान जयंती के रूप में मनाया जाता है। हनुमान जी की जन्मतिथि पर कई मतभेद हैं लेकिन अधिकतर लोग चैत्र शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा तिथि को ही हनुमान जयंती के रूप में मानते हैं। शास्‍त्रों के अनुसार हनुमान जी को भगवान शिव का गयारहवां अवतार माना जाता है।हनुमान जी की आराधना करने से हर पाप और हर कष्‍ट से मुक्‍त मिलती है। हनुमान जी भूत-प्रेत से भी अपने भक्‍तों को बचाते हैं। यह हनुमान जी की असीम शक्‍ति ही है कि आज भी उनके नाम से ही भूत-प्रेत कांपने लगते हैं। जिस घर में हनुमान जी की कृपा बरसती है वहां कोई भी दुख, क्‍लेश घर में नहीं आता।

भगवान हनुमानजी को हिन्दू देवताओं में सबसे शक्तिशाली माना गया है, वे रामायण जैसे महाग्रंथ के सह पात्र थे। वे भगवान शिव के ग्यारवें रूद्र अवतार थे जो श्रीराम की सेवा करने और उनका साथ देने त्रेता युग में अवतरित हुए थे। उनको बजरंग बलि, मारुतिनंदन, पवनपुत्र, केशरीनंदन आदि अनेकों नामों से पुकारा जाता है। उनका एक नाम वायुपुत्र भी है, उन्हें वातात्मज भी कहा गया है अर्थात् वायु से उत्पन्न होने वाला। इन्हें सात चिरंजीवियो में से एक माना जाता है। वे सभी कलाओं में सिद्धहस्त एवं माहिर थे। वीरो में वीर, बुद्धिजीवियांे में सबसे विद्वान। इन्होंने अपने पराक्रम और विद्या से अनेकों कार्य चुटकीभर समय में पूर्ण कर दिए है। वे शौर्य, साहस और नेतृत्व के भी प्रतीक हैं। समर्पण एवं भक्ति उनका सर्वाधिक लोकप्रिय गुण है। रामभक्त हनुमान बल, बुद्धि और विद्या के सागर तो थे ही, अष्ट सिद्धि और नौ निधियों के दाता और ज्योतिष के भी प्रकांड विद्वान थे। वे हर युग में अपने भक्तों को अपने स्वरूप का दर्शन कराते हैं और उनके दुःखों कोे हरतेे हैं। वे मंगलकर्ता एवं विघ्नहर्ता हैं।

मंगलवार को हनुमानजी का जन्म हुआ, ऐसा माना जाता है। भिन्न-भिन्न लोगों ने इस महान् आत्मा का मूल्यांकन भिन्न-भिन्न दृष्टिकोण से किया है। हनुमान का चरित्र एक लोकनायक का चरित्र है और उनके इसी चरित्र ने उन्हें सार्वभौमिक लोकप्रियता प्रदान की है। तैंतीस करोड़ देवी-देवताओं में मात्र हनुमान ही ऐसे हैं जिनकी आधुनिक युग में सर्वाधिक पूजा की जाती है और जन-जन के वे आस्था के केन्द्र हैं। उनके चरित्र ने जाति, धर्म और सम्प्रदाय की संकीर्ण सीमाओं को लांघ कर जन-जन को अनुप्राणित किया हैै। हनुमान का चरित्र बहुआयामी हैं क्योंकि उन्होंने संसार और संन्यास दोनों को जीया। वे एक महान् योगी एवं तपस्वी हैं और इससे भी आगे वे रामभक्त हैंे। हनुमान-भक्ति भोगवादी मनोवृत्ति के विरुद्ध एक प्रेरणा है संयम की, पवित्रता की। यह भक्ति एक बदलाव की प्रक्रिया है। यह भक्ति प्रदर्शन नहीं, आत्मा के अभ्युदय का उपक्रम है। इससे अहं नहीं, निर्दोष शिशुभाव जागता है। क्रोध नहीं, क्षमा शोभती है। कष्टों में मन का विचलन नहीं, सहने का धैर्य रहता है।

उत्कृष्ट विलक्षणताओं के प्रतीक हनुमान पूर्ण मानव थे। कहते हैं कि ब्रह्मा ने जब मनुष्य का निर्माण किया तो उन्हें बहुत प्रसन्नता हुई, क्योंकि उन्हें यह अनुभूत हुआ कि उनके द्वारा सृष्ट मानव ईश्वर का साक्षात्कार करने में समर्थ है। मानव न केवल संपूर्ण प्राणियों में सर्वश्रेष्ठ है, प्रत्युत वह अपनी साधना के द्वारा ब्रह्मपद को भी प्राप्त कर सकता है। त्रेतायुग के सर्वाधिक शक्तिशाली मानव हनुमान जिन्हें भ्रमवश अनेक देशी-विदेशी विद्वान पेड़ों पर उछल-कूद करनेवाला साधारण वानर मानते रहे हैं, अपने अलौकिक गुणों और आश्चर्यजनक कार्यों के बल पर कोटि-कोटि लोगों के आराध्य बन गये।

भारत ही नहीं, विश्व के इतिहास में किसी ऐसे मानव का उल्लेख नहीं मिलता, जिसमें शारीरिक बल और मानसिक शक्ति का एक साथ इतना अधिक विकास हुआ हो जितना हनुमान में हुआ था। प्राचीन भारत में ब्रह्मतेज से युक्त अनेक महामानव हुए। इसी प्रकार इस पावनभूमि में ऐसे विशिष्ट व्यक्ति भी हुए जो शारीरिक बल में बहुत बलशाली थे, परन्तु ब्रह्मतेज के साथ-साथ शास्त्र-बल का जो आश्चर्यजनक योग हनुमान में प्रकट हुआ, वह अन्यत्र दिखाई नहीं पड़ता। शुद्ध आचार, विचार और व्यवहार से जुड़ी हनुमान की ऐसी अनेक चारित्रिक व्याख्याएं हैं जिनमें जीवन और दर्शन का सही दृष्टिकोण सिमटा हुआ है।

हनुमान को बुद्धिमानों में अग्रगण्य माना जाता है। ऋग्वेद में उनके लिए ‘विश्ववेदसम्’ शब्द का प्रयोग किया गया है। इसका अभिप्रेत अर्थ है- विद्वानों में सर्वश्रेष्ठ। हनुमान अपने युग के विद्वानों में अग्रगण्य थे। उनकी गणना सामान्य विद्वानों में नहीं, बल्कि विशिष्ट विद्वानों में की जाती थी। वाल्मीकि रामायण में हनुमान को महाबलशाली घोषित करते हुए ‘बुद्धिमतां वरिष्ठं’ कहना पूर्ण युक्ति संगत है। ‘रामचरितमानस’ में भी उनके लिए ‘अतुलित बलधामं’ तथा ‘ज्ञानिनामग्रगण्यम’ इन दोनों विशेषणों का प्रयोग द्रष्टव्य है। ब्रह्मचारी हनुमानजी महान् संगीतज्ञ और गायक भी थे। इनके मधुर गायन को सुनकर पशु-पक्षी एवं सृष्टि का कण-कण मुग्ध हो जाता था।

हनुमान की विद्वता के साथ-साथ तर्क-शक्ति अत्यंत उच्च कोटि की थी। ऐसे अनेक प्रसंग है जब हनुमान ने अपनी तर्क-शक्ति से अनेक जटिल स्थितियों को सहज बना दिया। उनकी अलौकिक साधना एवं नैसर्गिक दिव्यता का ही परिणाम था कि वे भय और आशंका से भरे वातावरण में भी निःशंक और निर्भीक बने रहते थे। संकट की घड़ी में भी शांतचित्त होकर अपने आसन्न कर्तव्य का निश्चय करना उत्तम प्रज्ञा का प्रमाण है। हनुमान इस सर्वोत्कृष्ट प्रज्ञा से युक्त थे।

प्राचीन भारत की सर्वश्रेष्ठ भाषा संस्कृत और व्याकरण पर हनुमान का असाधारण अधिकार था। हनुमान ने सूत्र, वृत्ति, वार्तिक, महाभाष्य तथा संग्रह का भली-भांति अध्ययन किया था। अन्यान्य ग्रंथों तथा छंद-शास्त्र के ज्ञान में भी उनकी समानता करनेवाला कोई नहीं था। संपूर्ण विद्याओं के ज्ञान में उनकी तुलना देवताओं के गुरु बृहस्पति से की गयी है। महर्षि अगस्त्य के अनुसार हनुमान नवों व्याकरणों के अधिकारी विद्वान थे। नोबेल पुरस्कार विजेता आक्टाभियो पाज का भी यह सुनिश्चित मत है कि हनुमान ने व्याकरण शास्त्र की रचना की थी।
मारुति नंदन, परमवीर, श्रीराम भक्त हनुमानजी की पवित्र मन से की गयी साधना और भक्ति चमत्कारपूर्ण परिणाम देने वाली है। हनुमानजी शिव के अवतार माने जाते हैं और ग्यारहवें रुद्र के रूप में इनकी मान्यता है। कहते हैै-मर्यादा पुरुषोत्तम राम की सार्वकालिक सेवा करने एवं रावण-वध में उनका सहयोग करने के लिए भगवान राम का अवतार लेने से पूर्व ही त्रेतायुग में शिवजी ने अपने ग्यारहवें रुद्र के रूप में अवतार लिया था। वह ‘हनुमानजी’ के पवित्र लोकोपकारी नाम से विख्यात हुए। महादेव का हनुमान के रूप में अवतरण लेने के सन्दर्भ में कहा जाता है कि भगवान विष्णु महादेव के इष्ट देव हैं। वे उनके श्रीचरणों के शाश्वत पुजारी हैं। त्रेतायुग में रावणादि राक्षसों का सकुल संहार करके उनका उद्धार करने के लिए ही भगवान विष्णु अयोध्या के महाराज दशरथ के यहां अपनी सोलह कलाओं सहित पुत्र रूप में अवतरित हुए। अतः उनकी सेवा करने के लिए महादेव ने हनुमान के रूप में अवतार लिया।

तंत्र शास्त्र के आदि देवता और प्रवर्तक भगवान शिव हैं। इस प्रकार से हनुमानजी स्वयं भी तंत्र शास्त्र के महान पंडित हैं। समस्त देवताओं में वे शाश्वत देव हैं। परम विद्वान एवं अजर-अमर देवता हैं। वे अपने भक्तों का सदैव ध्यान रखते हैं। उनकी तंत्र-साधना, वीर-साधना है। वे रुद्रावतार और बल-वीरता एवं अखंड ब्रह्मचर्य के प्रतीक हैं। अतः उनकी उपासना के लिए साधक को सदाचारी होना अनिवार्य है। उसे मिताहारी, जितेन्द्रिय होना चाहिए। हनुमान साधना करने के लिए हर व्यक्ति उसका पालन नहीं कर सकता, इसलिए इस चेतावनी का सदैव ध्यान रखना चाहिए कि हनुमानजी को सिद्ध करने का प्रयास भौतिक सुखों की प्राप्ति या चमत्कार प्रदर्शन के लिए कभी नहीं करना चाहिए। उनकी भक्ति के माध्यम से भगवान राम के दर्शन तथा उनकी कृपा प्राप्त की जा सकती है। यह भक्ति हृदय की पवित्रता से ही संभव है और इसी से व्यक्ति घर और मन्दिर दोनों में एक-सा होता है। कहा जाता है की श्री हनुमानजी का जन्म ही राम भक्ति और उनके कार्यो को पूर्ण करने के लिए हुआ है। उनकी सांस-सांस में, उनके कण-कण में और खून के कतरे-कतरे में राम बसे हैं। एक प्रसंग में विभीषण के ताना मारने पर हनुमानजी ने सीना चिरकर भरी सभा में राम और जानकी के दर्शन अपने सीने में करा दिए थे।
हनुमान की भक्ति या उनको पाने के लिये इंसान को इंसान बनना जरूरी है। जब तक भक्ति की धारा बाहर की ओर प्रवाहित रहेगी तब तक भगवान अलग रहेंगे और भक्त अलग रहेगा। हनुमान भक्ति के लिये जरूरी है उनके जीवन से दिशाबोध ग्रहण करो और अपने में डूबकर उसे प्राप्त करो। ‘जिन खोजा तिन पाइयां गहरे पानी पैठ’- यही है सच्ची हनुमान भक्ति की भूमिका। भक्ति का असली रूप पहचानना जरूरी है, तभी मंजिल पर पहुंचेंगे, अन्यथा संसार की मरुभूमि में ही भटकते रह जायेंगे।
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जानिए श्री हनुमान जी के कष्‍ट निवारण मंत्र—-

यदि हनुमान जयंती के दिन शाम के समय दक्षिणमुखी हनुमान मूर्ति के सामने शुद्ध होकर हनुमानजी के चमत्कारिक मंत्रों का जाप किया जाए तो यह बहुत फलदायी होता है। हनुमान जी को पान का बीड़ा जरूर चढ़ाना चाहिए। मनोकामना पूर्ति के लिए इमरती का भोग लगाना भी शुभ होता है।

श्री हनुमान मूल मंत्र: ॐ ह्रां ह्रीं ह्रं ह्रैं ह्रौं ह्रः॥

हं हनुमते रुद्रात्मकाय हुं फट्।

हनुमन्नंजनी सुनो वायुपुत्र महाबल:। अकस्मादागतोत्पांत नाशयाशु नमोस्तुते।।

ऊँ हं हनुमंताय नम:।

ऊँ नमो हनुमते रूद्रावताराय सर्वशत्रुसंहारणाय सर्वरोग हराय सर्ववशीकरणाय रामदूताय स्वाहा।।

महाबलाय वीराय चिरंजिवीन उद्दते। हारिणे वज्र देहाय चोलंग्घितमहाव्यये।।
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भूलकर भी ना रखें पूजा घर में मृतकों की तस्‍वीर—

हिंदू धर्म में जीवन के विभिन्‍न मोड़ पर अलग-अलग रीति रिवाजों का पालन किया जाता है. पर्व के अलावा सामान्‍य जीवन में भी ये परंपराएं व रीतियां मानी जाती हैं.आदर्श हिंदू जीवन शैली में प्रतिदिन पूजा पाठ करना अनिवार्य है, यही कारण है कि प्रत्‍येक हिंदू के घर में पूजा घर होता है. एक बात आपने देखी होगी कि पूजा घर में आमतौर पर लोग किन्‍हीं मृतकों की तस्‍वीरें भी लगा दिया करते हैं. ये मृतक परिजनों के अलावा अन्‍य भी हो सकते हैं.

लेकिन वास्‍तु के अनुसार यह ठीक नहीं है. वास्‍तु को मानने वाले यह बात जानते हैं कि पूजा घर में पुरखों की तस्‍वीरें लगाना निषेध है. यदि पूजा घर में मृत व्‍यक्ति की तस्‍वीर रखी जा रही है तो इसका अर्थ ये हुआ कि आप अनजाने में ही परेशानियों को आहूत कर रहे हैं. तमिल विचारधारा के अनुसार मृतक देवदूत बनकर स्‍वर्ग में गति पाते हैं.

इस लिहाज से वे मृतकों को भगवान का दर्जा दे देते हैं. हिंदू मान्‍यताओं के अनुसार मृत्‍यु के बाद आत्‍मा शरीर को त्‍यागकर दूसरे शरीर का वरण कर लेती है. हिंदू धर्म में शरीर नश्‍वर है इसलिए उसका दाह संस्‍कार किया जाता है जबकि आत्‍मा पूजनीय है. इधर, वास्‍तु-शास्‍त्र कहता है कि देवों की तस्‍वीरों को उत्‍तर अथवा उत्‍तर पूर्व की दिशा में रखना चाहिए. पूजा घर की दिशा सदा उत्‍तर पूर्व होना चाहिए.

मृत पूर्वजों की तस्‍वीरों को दक्षिण पश्चिम या दक्षिण, पश्चिम में लगाना चाहिए. यदि उक्‍त क्रम का पालन नहीं किया गया तो परिवार में क्‍लेश, मानसिक कष्‍ट, संकट और दुविधा की आशंका बनी रहती है.
by PT dayanand shastri

जानिए आप कैसे अपना बुरा समय बदल सकते हैं घड़ी की स्थिति (पॉजिशन) से

जानिए आप कैसे अपना बुरा समय बदल सकते हैं घड़ी की स्थिति (पॉजिशन) से —

प्रिय पाठकों/मित्रों, क्या आपने कभी सोचा है कि दीवार पर टंगी घंड़ियां भी आपके घर में सुख-समृद्धि का कारण बन सकती है| घड़ी की सूईयां एवं पेंडुलम से सकारात्मक उर्जा का संचार होता है. घर में कभी भी बंद घड़ी नहीं रखनी चाहिए बंद घडी से घर की उन्नति रुक जाती है. चलती हुई घडी निरन्तर विकास का प्रतीक होती है. घरों में लगाई जाने जाने वाली घड़िया हमारे जीवन में महत्तवपूर्ण रोल निभाती है |ज्योतिष और वास्तु की बात करें, तो ये अद्वितीय शास्त्र हमें ये ज्ञान देते हैं कि चाहे कैसी भी विपरीत परिस्थितियाँ क्यूँ ना हों, ज्योतिष और वास्तु की सहायता से इन दोषों को कम किया जा सकता है और अपने विपरीत परिस्थितयों को अपने अनुकूल बनाया जा सकता है |
वास्तु शास्त्र में घड़ी लगाने के भी कुछ नियम बताए गए है। गलत ढंग से लगाई गई घड़ी आपका नुकसान करवा सकती है। दीवाल पर टंगी घंड़ियां भी घर में सुख-समृद्धि लाती हैं। फेंगशुई के अनुसार घड़ी की सूईयां एवं पेंडुलम से सकारात्मक उर्जा का संचार होता है। इसलिए कभी भी घर में बंद घड़ी नहीं रखें इससे उन्नति रूक जाती है।

घड़ी का चलते रहना निरन्तर विकास का प्रतीक है। समय से पीछे चलती घड़ी भी फेंगशुई के अनुसार सही नहीं होती है। व्यवहारिक जीवन में भी घड़ी का समय से पीछे चलना कई बार परेशानी का करण बनता है इसलिए घड़ी का समय सही रखें। घड़ी टांगने का संबंध समय देखने के अलावा घर की साज-सज्जा से भी है। तीसरी बात यह है कि उचित और वास्तु सम्मत स्थान पर घड़ी टांगने से उस कमरे या घर के लोगों का जीवन जहां अनुशासित रहता है, वहीं समय की गति के साथ उनका जीवन भी क्रियाशील यानी एक्टिव रहता है।
घर की बनावट के अनुसार ही दीवार घड़ी या टाइम पीस को लगाने का प्रावधान करना चाहिए। अगर आपके पास छोटा और सीमित आकार वाला घर हो, तो सिर्फ ड्राइंग रूम में ही वॉल-क्लॉक लगाना चाहिए।

जानिए घड़ी को कहां पर लगाएं ???

घड़ी कभी भी दक्षिण दिशा वाली दीवार पर नहीं लगाएं। दक्षिण दिशा को फेंगशुई एवं वास्तु दोनों में ही शुभ नहीं माना गया है क्योंकि यह यम की दिशा होती है। विज्ञान के अनुसार इस दिशा में निगेटिव एनर्जी होती है। दक्षिण दिशा की दीवार पर घड़ी होने से बार-बार आपका ध्यान इस दिशा की ओर जाएगा। इससे बार-बार दक्षिण दिशा की नकारात्मक उर्जा आप प्राप्त करेंगे।

घड़ी को कभी भी मुख्य द्वार के ठीक सामने अथवा दरवाजे के ऊपर नहीं लगाना चाहिए। इससे घर से बाहर आते और जाते समय आपके आस-पास की उर्जा प्रभावित होती है। इसके परिणामस्वरूप तनाव बढ़ता है। कुछ लोग सोते समय घड़ी तकिया के नीचे रख लेते हैं। ऐसा करने से घड़ी की टिक-टिक से नींद खराब होती है।

आजकल जो भी घड़ियां आती हैं वह आमतौर पर बैट्री से चलती हैं। इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों से जो इलेक्ट्रो-मैग्नेनिटक तरंग निकलता है उसका प्रभाव मस्तिष्क एवं हृदय पर पड़ता है। इसलिए फेंगशुई के साथ वैज्ञानिक दृष्टि से भी तकिये के नीचे घड़ी रखना अच्छा नहीं माना जाता है। ।

जानिए घड़ी की सही दिशा —
घडी को दीवार पर लगाने के लिए उत्तर, पूर्व एवं पश्चिम दिशा को आदर्श माना जाता है। इन दिशाओं को पोजेटिव एनर्जी प्रदान करने वाला माना जाता है। ड्रांईंग रूम या बेडरूम में घड़ी ऐसे लगाएं ताकि रूम में प्रवेश करने पर घड़ी पर नज़र जाए। यह भी ध्यान रखें कि घड़ी पर धूल-मिट्टी न जमे। मधुर संगीत उत्पन्न करने वाली दीवार घड़ी घर के मुख्य हॉल में लगानी चाहिए। इससे सकारात्मक ऊर्जा में वृद्धि होती है।

जानिए इसके साथ ही साथ क्या करें और क्या न करें ?

– दक्षिण दिशा में घड़ी कदापि न लगायें .
– घर के मुख्य दरवाज़े के ऊपर भी घड़ी कभी न लगायें.
– बंद पड़ी हुयी घड़ियों को यथाशीघ्र सही करवाएं .
– यदि घड़ी बिलकुल ख़राब हो गयी हो तो घर में ना रखें .
– किसी भी रिश्तेदार को भूल कर भी गिफ्ट में घड़ी ना दें .
– यदि घड़ी का समय आगे या पीछे हो गया हो तो उसे सही समय से मिला लें .
– घड़ी का समय आगे या पीछे न रखें .
– दीवार घड़ी पर कभी धुल न जमने दें, समय समय पे उसे साफ़ करते रहा करें .
– घर का माहौल खुशनुमा बनाये रखने के लिए उन घड़ियों को लगायें जिनकी संगीत मधुर हो .
– सोते समय तो हरगिज़ भी तकिये के नीचे कोई भी घड़ी न रखें .
– घर के पूर्व, उत्तर और पश्चिम में ही घड़ी लगायें .
-घर के ड्राइंग रूम में पेंडुलम वाली घड़ियाँ लगाने से सौभ्य वृधि होती है .
– गोल, आयताकार घड़ियाँ शुभ प्रभाव लाती हैं.

जानिए कौन सी घड़ी लकी है—-
घड़ियों का आकार फेंगशुई में काफी मायने रखता है। इसलिए जब अब घड़ी खरीद रहे हों तो इस बात का ध्यान रखें कि क्या आपकी घड़ी फेंगशुई के अनुसार आपके लिए लकी है। फेंगशुई के अनुसार अंडाकार, गोल, अष्टभुजाकार और षट्भुजाकार एवम आयताकार घड़ियाँ शुभ प्रभाव लाती हैं |

जानिए घडी लगते समय क्या रखें सावधानिया—

—-स्टडी रूम में पूर्व या वायव्य कोण में घड़ी लगाना सर्वोत्तम रहेगा। इससे जहां वहां कार्यरत अध्ययनकर्ता की एकाग्रता बनी रहेगी, वहीं उनका समय भी फालतू कार्यों और दिमागी उलझनों में बर्बाद नहीं होगा।
—-वास्तुशास्त्री पंडित दयानंद शास्त्री के अनुसार ड्राइंग रूम में पूर्व या वायव्य कोण में दीवार घड़ी लगाने से घर के सदस्यों की शारीरिक और मानसिक ऊर्जा गतिमान रहेगी। उनके जीवन में नवीनता और गतिशीलता आएगी। पूर्व दिशा में लगाई गई दीवार घड़ी उनको सदैव समय पर जागृत रखेगा और किसी भी आकस्मिक घटना-दुर्घटना के प्रति वे समय रहते सचेत हो जाएंगे। साथ ही घर के सदस्यों का जीवंत व्यवहार बैठक यानी ड्राइंग रूम को आबाद रखेगा और उसमें साज-सज्जा के नए-नए और आधुनिक वास्तु सामग्री का संग्रह होता ही रहेगा। अच्छा ड्राइंग रूम गृहस्थ के सुविचार और अच्छे टेस्ट का प्रतीक बनेगा।
—-यदि ड्राइंग रूम के उत्तर की ओर दीवार घड़ी लगाते हैं, तो आर्थिक कार्य समय पर बनते रहेंगे। घर में धन की आवक समय पर होगी, लेकिन उत्तर की ओर पितर और देवताओं का वास होता है। अत: किसी देवी-देवता की चित्र या फोटो प्रतीक लगी हुई दीवार घड़ी लगाई जाए, तो ड्राइंग की साज-सज्जा में चार चांद लग जाएंगे।
—-वायव्य कोण बदलाव का प्रतीक है। हवा यानी वायु हर समय इस दिशा को साफ करती है। इस दिशा में अगर घड़ी लगाना हो, तो सादा और गोलाकार या अंडाकार नमूने की ही घड़ी लगानी चाहिए, ताकि समय की गति और बदलाव के अच्छे और सुखद क्षण बार-बार आते रहें। जिस प्रकार हवा गोल दायरे में चक्कर काटती है, वैसे ही मानव जीवन भी एक आवृति लिए रहता है। उसमें दुख-सुख अपना चक्कर पूरा करते रहते हैं।
— ध्यान रहे कि जहां भी घड़ी लगाई जा रही है, वहां या उसके आसपास शेर, भालू, सियार गिद्द, सुअर, घडि़याल, बाघ, चीता या सांप आदि परभक्षी व खतरनाक प्राणियों के चित्र नहीं लगाने चाहिए। इससे जहां समय की धारा विरुद्ध हो जाती है, वहीं अन्य प्रकार के वास्तु-दोष घर के सदस्यों की कार्यक्षमता को प्रभावित करते हैं।
बेडरूम में सदैव उत्तर या उत्तरपूर्व दिशा में ही घड़ी लगानी चाहिए। वैसे, यहां अधिक खटपट करने वाली क्लॉक नहीं लगानी चाहिए और न ही अलार्म रहित घड़ी। हां, प्रत्येक घंटे चेतावनी देने वाली टबिल क्लॉक बेड रूम में लगाना अच्छा नहीं रहेगा। इससे नींद में खलल पड़ेगा।
—-वास्तु शास्त्र के अनुसार कभी भी घर के मुख्य द्वार या दरवाजे के ऊपर घड़ी लगाना भी शुभ नहीं माना गया है. घर के मुख्य द्वार पर घडी लगाने से घर में तनाव बढ़ता है |
—घर में बहुत पुरानी या बार-बार खराब होने वाली और धुंधले शीशे वाली घड़ियां भी नहीं लगनी चाहिए ये की सफलता में बाधक है |
—-आजकल बाजार में जो घड़िया आयी है वह अधिकतर बैट्री से चलती हैं. इन इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों से जो इलेक्ट्रो-मैग्नेनिटक तरंग निकलती है ये हमारे मस्तिष्क एवं हृदय पर बुरा प्रभाव डालती है वास्तुशास्त्र के अनुसार और वैज्ञानिक दृष्टि से ऐसी घड़ियों को तकिये के नीचे नहीं रखना चाहिए |
—-ऑफिस या कार्यस्थल पर लगाई जाने वाली घडी का साइज कुछ बड़ा होना चाहिए ये गाड़ी दिखने में साफ़ सुथरी होनी चाहिए. बहुत पुरानी और रुक-रुक कर चलने वाली घड़ी कार्यालय में नेगेटिव ऊर्जा लाती है |
—दीवार की घडी पर कभी भी धूल-मिट्टी न जमने दे समय-समय पर घडी पर जमी धूल मिटटी को साफ़ करते रहे |
—-यदि घडी का शीशा टूटा हो तो उसे समय पर बदल देना चहिये अन्यथा घर में नेगेटिव ऊर्जा आती है|
—-घड़ी को घर पर ऐसे स्थान में लगाए जहा से सभी को आसानी से दिखाई दे |
—-कभी भी बेड के सिरहाने वाली दीवार पर कोई घड़ी या फोटो फ्रेम न लगाए इससे घर के सदस्यों में सर दर्द की समस्या बानी रहती है |
by – Pt dayanand shastri

जानिए चंद्र दोष (ग्रहण दोष) क्या होता ??क्यों होता हैं ग्रहण दोष ?? कैसे करें निवारण ???

जानिए चंद्र दोष (ग्रहण दोष) क्या होता ??क्यों होता हैं ग्रहण दोष ?? कैसे करें निवारण ???
 
 आपने जन्मकुंडली में योग और दोष दोनों के बारे में जरूर सुना होगा। ज्योतिष्य योग और ज्योतिष्य दोष ये दोनों अलग अलग प्रकार की ग्रहों की स्थितिया है जो आपस में उनके कुंडली में मिलने से उनके संयोग बनती है, जिसे हम ज्योतिष्य भाषा में ग्रहों की युति कह कर सम्बोधित करते है। जो कई प्रकार के शुभ और अशुभ योगो का निर्माण करती है। उन शुभ योगो में कुछ राजयोग होते है।  हर व्यक्ति अपनी कुंडली में राजयोग को खोजना चाहता है जोकि ग्रहो के संयोग से बनने वाली एक सुखद अवस्था है।  ईश्वर की कृपया से जिनकी कुंडली में यह सुन्दर राजयोग होते है वह अपनी ज़िंदगी अच्छी प्रकार से व्यतीत कर पाने में समर्थ होते है।  लेकिन इसके विपरीत कुछ  जातक ऐसे भी होते है जिनकी कुंडली में ग्रह कुछ दुषयोगो  का निर्माण करते है। जिनका जातक को यथा सम्भव उपाय करवा लेना चाहिये। आज हम यहाँ ग्रहों के माध्यमो से बनने वाले कुछ दुषयोगो के बारे में बात करेंगे।
ग्रहदोष शांति पूजा का महत्व यह पूजा किसी के जीवन में बहुत महत्वपूर्ण है क्योंकि यह जीवन की सभी समस्याओं से व्यक्ति को बाहर लाता है। सुख और समृद्धि के सभी प्रकार के किसी भी बाधाओं और रास्ते में बाधाओं के बिना हासिल किया जा रहा है। ग्रहदोष शांति पूजा के लाभ इस पूजा के विभिन्न लाभ कर रहे हैं, क्योंकि यह व्यक्ति मानसिक गड़बड़ी, स्वास्थ्य समस्याओं, साथी के साथ इस समस्या से छुटकारा पाने में मदद करता है, बच्चे की अवधारणा। पेशेवर जीवन में सफलता बहुत हद तक और धन के लिए सुधार हो जाता है और भौतिकवादी खुशी जीवन भर रखा है।
 
चंद्र ग्रहण दोष क्‍या होता है – 
 
ज्योतिषाचार्य पंडित दयानंद शास्त्री ने बताया कीजब राहु या केतू की युति चंद्र के साथ हो जाती है तो चंद्र ग्रहण दोष हो जाता है। दूसरे शब्‍दों में, चंद्र के साथ राहु और केतू का नकारात्‍मक गठन, चंद्र ग्रहण दोष कहलाता है। ग्रहण दोष का प्रभाव, विभिन्‍न राशियों पर विभिन्‍न प्रकार से पड़ता है जिसके लिए जन्‍मकुंडली, ग्रहों की स्थिति भी मायने रखती है|
 
चंद्र ग्रहण दोष के विभिन्‍न कारण – 
 
चंद्र ग्रहण दोष के कई कारण होते हैं और हर व्‍यक्ति के जीवन पर उसका प्रभाव भी अलग तरीके से पड़ता है। चंद्र ग्रहण दोष का सबसे अधिक प्रभाव, उत्‍तरा भादपत्र नक्षत्र में पड़ता है। जो जातक, मीन राशि का होता है और उसकी कुंडली में चंद्र की युति राहु या केतू के साथ स्थित हो जाएं, ग्रहण दोष के कारण स्‍वत: बन जाते हैं। ऐसे व्‍यक्तियों पर इसके प्रभाव अधिक गंभीर होते हैं।
 
चंद्र ग्रहण दोष के अन्‍य कारण –
राहु, राशि के किसी भी हिस्‍से में चंद्र के साथ पाया जाता है- जबकि केतू समान राशि में चंद्र के साथ पाया जाता है
– राहु, चंद्र महादशा के दौरान ग्रहण लगाते हैं 
– चंद्र ग्रहण के दिन बच्‍चे को स्‍नान अवश्‍य कराएं।
 
चंद्र ग्रहण दोष का पता किस प्रकार लगाया जा सकता है – 
 
 चंद्र ग्रहण दोष का पता लगाने के सबसे पहले जन्‍मकुंडली का होना आवश्‍यक होता है, इस जन्‍मकुंडली में राहु और केतू की दशा को पंडित के द्वारा पता लगाया जा सकता है। या फिर, नवमासा या द्वादसमास चार्ट को देखकर भी दोष को जाना जा सकता है। बेहतर होगा कि किसी ज्ञानी पंडित से सलाह लें। ऐसा माना जाता है कि पिछले जन्‍म के कर्मों के कारण वर्तमान जन्‍म में चंद्र ग्रहण दोष लगता है।
 
चंद्र ग्रहण दोष के परिणाम(प्रभाव) – 
 
 व्‍यक्ति परेशान रहता है, दूसरों पर दोष लगाता रहता है, उसके मां के सुख में भारी कमी आ जाती है। उसमें सम्‍मान में कमी अाती है। हर प्रकार से उस व्‍यक्ति पर भारी समस्‍याएं आ जाती है जिनके पीछे सिर्फ वही दोषी होता है। साथ ही स्‍वास्‍थ्‍य सम्‍बंधी दिक्‍कतें भी आती हैं। सूर्य और चंद्र  ग्रहदोष एक व्यक्ति के जीवन में अपने स्वयं के बुरे प्रभावों की है। सूर्य के कारण दोष व्यक्तिगत सफलता, शोहरत और नाम है जो समग्र विकास में पड़ाव परिणाम प्राप्त करने में बाधाओं का सामना। एक औरत बार-बार गर्भपात, बच्चे और दोषपूर्ण पुत्रयोग की अवधारणा में समस्या की तरह बच्चे से संबंधित समस्या का सामना करना पड़ता। स्वास्थ्य समस्याओं को भी सूर्य दोष के कारण प्रमुख हैं। चंद्र दोष अपने स्वयं के बुरे प्रभावों के रूप में यह व्यक्ति अनावश्यक तनाव का एक बहुत कुछ देता है। 
 
इस दोष के कारण वहाँ विश्वास, भावनात्मक अपरिपक्वता, लापरवाही, याददाश्त में कमी, असंवेदनशीलता में एक नुकसान है। स्वास्थ्य छाती, फेफड़े, सांस लेने और मानसिक अवसाद से संबंधित समस्याओं को बहुत हद तक अनुकूल हैं। आत्म विनाशकारी प्रकृति भी हो जाता है एक व्यक्ति के मन में उठता है और आत्महत्या करने की कोशिश करता है।यदि आप हमेशा कश्मकश में रहते हैं, इधर-उधर की सोचते रहते हैं, निर्णय लेने में कमजोर हैं, भावुक एवं संवेदनशील हैं, अन्तर्मुखी हैं, शेखी बघारने वाले व्यक्ति हैं, नींद पूरी नही आती है, सीधे आप सो नहीं सकते हैं अर्थात हमेशा करवट बदलकर सोएंगे अथवा उल्टे सोते हैं, भयभीत रहते हैं तो निश्चित रुप से आपकी कुंडती में चन्द्रमा कमजोर होगा |समय पर इस कमजोर चंद्रमा अर्थात प्रतिकूल प्रभाव को कम करने का उपाय करना चाहिए अन्यथा जीवन भर आप आत्म विश्वास की कमी से ग्रस्त रहेंगे.
 
जिन व्यक्तियों का चन्द्रमा क्षीण होकर अष्टम भाव में और चतुर्थ तथा चंद्र पर राहु का प्रभाव हो, अन्य शुभ प्रभाव न हो तो वे मिरगी रोग का शिकार होते हैं.
 
जिन लोगों का चन्द्रमा छठे आठवें आदि भावों में राहु दृष्ट न हो, वैसे पाप दृष्ट हो तो उनको रक्त चाप आदि होता है.
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चंद्रमा को सोम भी कहा जाता है. सोमवार को भगवान शिव का दिन माना जाता है और इस दिन भगवान शिव के पूजन से मनुष्‍य को विशेष लाभ प्राप्त होता है. चन्द्रमा के अधिदेवता भी शिव हैं और इसके प्रत्याधिदेवता जल है. महादेव के पूजन से चंद्रमा के दोष का निवारण होता है. महादेव ने चंद्र को अपनी जटाओं पर धारण किया हुआ है. इस प्रकार भगवान शिव की पूजा से चंद्रमा के उलटे प्रभाव से तत्काल मुक्ति मिलती है. भगवान शिव के कई प्रचलित नामों में एक नाम सोमसुंदर भी है. सोम का अर्थ चंद्र होता है | चन्द्रमा ज्योतिष शास्त्र में बहुत अधिक महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है।  इसके संबंध में ज्योतिष शास्त्र कहता है कि चन्द्रमा का आकर्षण पृथ्वी पर भूकंप, समुद्री आंधियां, ज्वार भाटा,  तूफानी हवाएं, अति वर्षा, भूस्खलन आदि लाता हैं। रात को चमकता पूरा चांद मानव सहित जीव-जंतुओं पर भी गहरा असर डालता है।  चन्द्रमा से ही मनुष्य का मन और समुद्र से उठने वाली लहरे दोनों का निर्धारण होता है। माता और चंद्र का संबंध भी गहरा होता है। कुंडली में माता की स्थिति को भी चन्द्रमा देवता से देखा जाता है और चन्द्रमा को माता भी कहा जाता है।हमारी कुंडली में जिस भी राशि में चन्द्रमा हो वही हमारी जन्म राशि कहलाती है और जब भी शुभ कार्य करने के लिए महूर्त  देखा जाता है वह हमारी जन्मराशि के अनुसार देखा जाता है जैसे की हमारी जन्म राशि के अनुसार चन्द्रमा कहाँ और किस नक्षत्र में गोचर कर रहा है।
 
चन्द्रमा ही हमारे जीवन की जीवन शक्ति है।  किसी  कुंडली में अगर चन्द्रमा की स्थिति अगर क्षीण होती है अथवा  चन्द्रमा पाप प्रभाव लिए हो तो उस व्यक्ति की मानसिक स्थिति को कोई भी अच्छा ज्योतिषी देख कर बता सकता है कि जातक के मन में क्या विचार चलते है तथा जातक की  मनोस्थिति किस प्रकार है । निश्चित ही ऐसे जातक का मन उतावला होगा,  अत्यंत चंचल होगा।  मन को एकाग्र करने में कठनाईयाँ होंगी और जब मन ही एकाग्र नही होगा तो जातक पढ़ने तो बैठेगा लेकिन कुछ ही मिनट बाद उठ जायेगा, जातक सोचेगा की पहले फलां कार्य कर लूँ , पढ़ तो कुछ देर बाद भी लूँगा।चन्द्रमा देवता हमारे मन और मस्तिक्ष के करक है। किसी भी जन्मकुंडली  में चन्द्र की महत्वपूर्ण भूमिका को देखे बिना कुंडली  का विश्लेषण केवल कुंडली के शव के परिक्षण जैसा होता है।  
 
ज्योतिषी इन ग्रहो युतियों को भिभिन् प्रकारों से सम्बोधित करते है। कई ज्योतिष इन्हे दोष कह कर सम्बोधित करते है तो कई योग कह कर बुलाते है .  मेरे विचार से जबतक किन्ही ग्रहों कि युतियां अच्छा फल देने में समर्थ न हो तब तक उसे योग नही कहा जा सकता है।  वह दुषयोग ही कहलाएगी। 
 
आज के इस लेख में हम चन्द्र पूजा की विधि के बारे में चर्चा करेंगे तथा इस पूजा में प्रयोग होने वाली महत्वपूर्ण क्रियाओं के बारे में भी विचार करेंगे। वैदिक ज्योतिष चन्द्र पूजा का सुझाव मुख्य रूप से किसी कुंडली में अशुभ रूप से कार्य कर रहे चन्द्र की अशुभता को कम करने के लिए, अशुभ चन्द्र द्वारा कुंडली में बनाए जाने वाले किसी दोष के निवारण के लिए अथवा किसी कुंडली में शुभ रूप से कार्य कर रहे चन्द्र की शक्ति तथा शुभ फल बढ़ाने के लिए देता है। चन्द्र पूजा का आरंभ सामान्यतया सोमवार वाले दिन किया जाता है तथा उससे अगले सोमवार को इस पूजा का समापन कर दिया जाता है जिसके चलते इस पूजा को पूरा करने के लिए सामान्यता 7 दिन लगते हैं किन्तु कुछ स्थितियों में यह पूजा 7 से 10 दिन तक भी ले सकती है जिसके चलते सामान्यतया इस पूजा के आरंभ के दिन को बदल दिया जाता है तथा इसके समापन का दिन सामान्यतया सोमवार ही रखा जाता है। 
 
किसी भी प्रकार की पूजा को विधिवत करने के लिए सबसे महत्वपूर्ण है उस पूजा के लिए निश्चित किये गए मंत्र का एक निश्चित संख्या में जाप करना तथा यह संख्या अधिकतर पूजाओं के लिए 125,000 मंत्र होती है तथा चन्द्र पूजा में भी चन्द्र वेद मंत्र का 125,000 बार जाप करना अनिवार्य होता है। पूजा के आरंभ वाले दिन पांच या सात पंडित पूजा करवाने वाले यजमान अर्थात जातक के साथ भगवान शिव के शिवलिंग के समक्ष बैठते हैं तथा शिव परिवार की विधिवत पूजा करने के पश्चात मुख्य पंडित यह संकल्प लेता है कि वह और उसके सहायक पंडित उपस्थित यजमान के लिए चन्द्र वेद मंत्र का 125,000 बार जाप एक निश्चित अवधि में करेंगे तथा इस जाप के पूरा हो जाने पर पूजन, हवन तथा कुछ विशेष प्रकार के दान आदि करेंगे। जाप के लिए निश्चित की गई अवधि सामान्यतया 7 से 10 दिन होती है। संकल्प के समय मंत्र का जाप करने वाली सभी पंडितों का नाम तथा उनका गोत्र बोला जाता है तथा इसी के साथ पूजा करवाने वाले यजमान का नाम, उसके पिता का नाम तथा उसका गोत्र भी बोला जाता है तथा इसके अतिरिक्त जातक द्वारा करवाये जाने वाले चन्द्र वेद मंत्र के इस जाप के फलस्वरूप मांगा जाने वाला फल भी बोला जाता है जो साधारणतया जातक की कुंडली में अशुभ चन्द्र द्वारा बनाये जाने वाले किसी दोष का निवारण होता है अथवा चन्द्र ग्रह से शुभ फलों की प्राप्ति करना होता है।
 
इस संकल्प के पश्चात सभी पंडित अपने यजमान अर्थात जातक के लिए चन्द्र वेद मंत्र का जाप करना शुरू कर देते हैं तथा प्रत्येक पंडित इस मंत्र के जाप को प्रतिदिन लगभग 8 से 10 घंटे तक करता है जिससे वे इस मंत्र की 125,000 संख्या के जाप को संकल्प के दिन निश्चित की गई अवधि में पूर्ण कर सकें। निश्चित किए गए दिन पर जाप पूरा हो जाने पर इस जाप तथा पूजा के समापन का कार्यक्रम आयोजित किया जाता है जो लगभग 2 से 3 घंटे तक चलता है। सबसे पूर्व भगवान शिव, मां पार्वती, भगवान गणेश तथा शिव परिवार के अन्य सदस्यों की पूजा फल, फूल, दूध, दहीं, घी, शहद, शक्कर, धूप, दीप, मिठाई, हलवे के प्रसाद तथा अन्य कई वस्तुओं के साथ की जाती है तथा इसके पश्चात मुख्य पंडित के द्वारा चन्द्र वेद मंत्र का जाप पूरा हो जाने का संकल्प किया जाता है जिसमे यह कहा जाता है कि मुख्य पंडित ने अपने सहायक अमुक अमुक पंडितों की सहायता से इस मंत्र की 125,000 संख्या का जाप निर्धारित विधि तथा निर्धारित समय सीमा में सभी नियमों का पालन करते हुए किया है तथा यह सब उन्होंने अपने यजमान अर्थात जातक के लिए किया है जिसने जाप के शुरू होने से लेकर अब तक पूर्ण निष्ठा से पूजा के प्रत्येक नियम की पालना की है तथा इसलिए अब इस पूजा से विधिवत प्राप्त होने वाला सारा शुभ फल उनके यजमान को प्राप्त होना चाहिए।
 
“ॐ श्रां श्रीं श्रौं स: चंद्रमसे नम:” अथवा “ॐ सों सोमाय नम:” का जाप करना अच्छे परिणाम देता है। ये वैदिक मंत्र हैं, इस मंत्र का जाप जितनी श्रद्धा से किया जाएगा यह उतना ही फलदायक होगा।
 
इस समापन पूजा के चलते नवग्रहों से संबंधित अथवा नवग्रहों में से कुछ विशेष ग्रहों से संबंधित कुछ विशेष वस्तुओं का दान किया जाता है जो विभिन्न जातकों के लिए भिन्न भिन्न हो सकता है तथा इन वस्तुओं में सामान्यतया चावल, गुड़, चीनी, नमक, गेहूं, दाल, खाद्य तेल, सफेद तिल, काले तिल, जौं तथा कंबल इत्यादि का दान किया जाता है। इस पूजा के समापन के पश्चात उपस्थित सभी देवी देवताओं का आशिर्वाद लिया जाता है तथा तत्पश्चात हवन की प्रक्रिया शुरू की जाती है जो जातक तथा पूजा का फल प्रदान करने वाले देवी देवताओं अथवा ग्रहों के मध्य एक सीधा तथा शक्तिशाली संबंध स्थापित करती है। औपचारिक विधियों के साथ हवन अग्नि प्रज्जवल्लित करने के पश्चात तथा हवन शुरू करने के पश्चात चन्द्र वेद मंत्र का जाप पुन: प्रारंभ किया जाता है तथा प्रत्येक बार इस मंत्र का जाप पूरा होने पर स्वाहा: का स्वर उच्चारण किया जाता है जिसके साथ ही हवन कुंड की अग्नि में एक विशेष विधि से हवन सामग्री डाली जाती है तथा यह हवन सामग्री विभिन्न पूजाओं तथा विभिन्न जातकों के लिए भिन्न भिन्न हो सकती है। चन्द्र वेद मंत्र की हवन के लिए निश्चित की गई जाप संख्या के पूरे होने पर कुछ अन्य महत्वपूर्ण मंत्रों का उच्चारण किया जाता है तथा प्रत्येक बार मंत्र का उच्चारण पूरा होने पर स्वाहा की ध्वनि के साथ पुन: हवन कुंड की अग्नि में हवन सामग्री डाली जाती है।
 
अंत में एक सूखे नारियल को उपर से काटकर उसके अंदर कुछ विशेष सामग्री भरी जाती है तथा इस नारियल को विशेष मंत्रों के उच्चारण के साथ हवन कुंड की अग्नि में पूर्ण आहुति के रूप में अर्पित किया जाता है तथा इसके साथ ही इस पूजा के इच्छित फल एक बार फिर मांगे जाते हैं। तत्पश्चात यजमान अर्थात जातक को हवन कुंड की 3, 5 या 7 परिक्रमाएं करने के लिए कहा जाता है तथा यजमान के इन परिक्रमाओं को पूरा करने के पश्चात तथा पूजा करने वाले पंडितों का आशिर्वाद प्राप्त करने के पश्चात यह पूजा संपूर्ण मानी जाती है। हालांकि किसी भी अन्य पूजा की भांति चन्द्र पूजा में भी उपरोक्त विधियों तथा औपचारिकताओं के अतिरिक्त अन्य बहुत सी विधियां तथा औपचारिकताएं पूरी की जातीं हैं किन्तु उपर बताईं गईं विधियां तथा औपचारिकताएं इस पूजा के लिए सबसे अधिक महत्वपूर्ण हैं तथा इसीलिए इन विधियों का पालन उचित प्रकार से तथा अपने कार्य में निपुण पंडितों के द्वारा ही किया जाना चाहिए। इन विधियों तथा औपचारिकताओं में से किसी विधि अथवा औपचारिकता को पूरा न करने पर अथवा इन्हें ठीक प्रकार से न करने पर जातक को इस पूजा से प्राप्त होने वाले फल में कमी आ सकती है तथा जितनी कम विधियों का पूर्णतया पालन किया गया होगा, उतना ही इस पूजा का फल कम होता जाएगा।
 
चन्द्र पूजा के आरंभ होने से लेकर समाप्त होने तक पूजा करवाने वाले जातक को भी कुछ नियमों का पालन करना पड़ता है। इस अवधि के भीतर जातक के लिए प्रत्येक प्रकार के मांस, अंडे, मदिरा, धूम्रपान तथा अन्य किसी भी प्रकार के नशे का सेवन निषेध होता है अर्थात जातक को इन सभी वस्तुओं का सेवन नहीं करना चाहिए। इसके अतिरिक्त जातक को इस अवधि में अपनी पत्नि अथवा किसी भी अन्य स्त्री के साथ शारीरिक संबंध नहीं बनाने चाहिएं तथा अविवाहित जातकों को किसी भी कन्या अथवा स्त्री के साथ शारीरिक संबंध नहीं बनाने चाहिएं। इसके अतिरिक्त जातक को इस अवधि में किसी भी प्रकार का अनैतिक, अवैध, हिंसात्मक तथा घृणात्मक कार्य आदि भी नहीं करना चाहिए। इसके अतिरिक्त जातक को प्रतिदिन मानसिक संकल्प के माध्यम से चन्द्र पूजा के साथ अपने आप को जोड़ना चाहिए तथा प्रतिदिन स्नान करने के पश्चात जातक को इस पूजा का समरण करके यह संकल्प करना चाहिए कि चन्द्र पूजा उसके लिए अमुक स्थान पर अमुक संख्या के पंडितों द्वारा चन्द्र वेद मंत्र के 125,000 संख्या के जाप से की जा रही है तथा इस पूजा का विधिवत और अधिकाधिक शुभ फल उसे प्राप्त होना चाहिए। ऐसा करने से जातक मानसिक रूप से चन्द्र पूजा के साथ जुड़ जाता है तथा जिससे इस पूजा से प्राप्त होने वाले फल और भी अधिक शुभ हो जाते हैं।
 
यहां पर यह बात ध्यान देने योग्य है कि चन्द्र पूजा जातक की अनुपस्थिति में भी की जा सकती है तथा जातक के व्यक्तिगत रूप से उपस्थित होने की स्थिति में इस पूजा में जातक की तस्वीर अर्थात फोटो का प्रयोग किया जाता है जिसके साथ साथ जातक के नाम, उसके पिता के नाम तथा उसके गोत्र आदि का प्रयोग करके जातक के लिए इस पूजा का संकल्प किया जाता है। इस संकल्प में यह कहा जाता है कि जातक किसी कारणवश इस पूजा के लिए व्यक्तिगत रूप से उपस्थित होने में सक्षम नहीं है जिसके चलते पूजा करने वाले पंडितों में से ही एक पंड़ित जातक के लिए जातक के द्वारा की जाने वाली सभी प्रक्रियाओं पूरा करने का संकल्प लेता है तथा उसके पश्चात पूजा के समाप्त होने तक वह पंडित ही जातक की ओर से की जाने वाली सारी क्रियाएं करता है जिसका पूरा फल संकल्प के माध्यम से जातक को प्रदान किया जाता है। प्रत्येक प्रकार की क्रिया को करते समय जातक की तस्वीर अर्थात फोटो को उपस्थित रखा जाता है तथा उसे सांकेतिक रूप से जातक ही मान कर क्रियाएं की जातीं हैं। उदाहरण के लिए यदि जातक के स्थान पर पूजा करने वाले पंडित को भगवान शिव को पुष्प अर्थात फूल अर्पित करने हैं तो वह पंडित पहले पुष्प धारण करने वाले अपने हाथ को जातक के चित्र से स्पर्श करता है तथा तत्पश्चात उस हाथ से पुष्पों को भगवान शिव को अर्पित करता है तथा इसी प्रकार सभी क्रियाएं पूरी की जातीं हैं। यहां पर यह बात ध्यान देने योग्य है कि व्यक्तिगत रूप से अनुपस्थित रहने की स्थिति में भी जातक को चन्द्र पूजा के आरंभ से लेकर समाप्त होने की अवधि तक पूजा के लिए निश्चित किये गए नियमों का पालन करना होता है भले ही जातक संसार के किसी भी भाग में उपस्थित हो। इसके अतिरिक्त जातक को उपर बताई गई विधि के अनुसार अपने आप को इस पूजा के साथ मानसिक रूप से संकल्प के माध्यम से जोड़ना भी होता है जिससे इस चन्द्र पूजा के अधिक से अधिक शुभ फल जातक को प्राप्त हो सकें।       
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चंद्र दोष निवारण —-  
 
 चंद्र दोष के उपाय जो शास्त्रों में उल्लेखित हैं उनमें सोमवार का व्रत करना, माता की सेवा करना, शिव की आराधना करना, मोती धारण करना, दो मोती या दो चांदी का टुकड़ा लेकर एक टुकड़ा पानी में बहा देना तथा दूसरे को अपने पास रखना है. कुंडली के छठवें भाव में चंद्र हो तो दूध या पानी का दान करना मना है. यदि चंद्र बारहवां हो तो धर्मात्मा या साधु को भोजन न कराएं और ना ही दूध पिलाएं. सोमवार को सफेद वास्तु जैसे दही, चीनी, चावल, सफेद वस्त्र, 1 जोड़ा जनेऊ, दक्षिणा के साथ दान करना और ॐ सोम सोमाय नमः का १०८ बार नित्य जाप करना श्रेयस्कर होता है. 
 
जाप मंत्र —
ऊँ श्रां श्रीं श्रौं स: चन्द्रमसे नम:.
 
चंद्र नमस्कार के लिए मंत्र —
दधि शंख तुषारामं क्षीरोदार्णव सम्भवम्. नमामि शशिनं भक्तया शम्भोर्मकुट भूषणम्..
 
शिव का महामृत्युंजय मंत्र— 
त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्उ र्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्ष्रिय मामृतात्.
इसे मृत संजीवनी मंत्र भी कहा गया है. यह मंत्र दैत्य गुरु शुक्राचार्य द्वारा दधीचि ऋषि को प्रदान किया गया था. चन्द्र दोष निवारण के लिये शिवरात्रि पर रुद्राभिषेक करवाएं. यदि आपके आसपास कोई शिव मंदिर हो तो वहां जाकर विशेष पूजा -अर्चना करनी चाहिए. उस रात्रि को संभव हो तो शिव मंदिर में जाकर जागरण करें.
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चंद्र दोष निवारण के तांत्रिक टोटका  —-
 
महापंडित रावण जैसे ज्ञानी चार वेदों के ज्ञान के आधार पर और अपने ज्योतिष ज्ञान के आधार पर चंद्र दोष निवारण के कुछ उपाय बताएं हैं. रावण के महान विद्या के आधार पर ‘लाल किताब’ की रचना की गयी है. यहां वैदिक ज्योतिष में चंद्र दोष निवारण के लिए बड़े बड़े हवन आदि करने पड़ते है वहीं रावण के तांत्रिक टोटके उस समस्या को कुछ ही दिनों में नष्ट कर देते है. हमारे ज्योतिष शास्त्रों ने चंद्रमा को चौथे घर का कारक माना है. यह कर्क राशी का स्वामी है. चन्द्र ग्रह से वाहन का सुख सम्पति का सुख विशेष रूप से माता और दादी का सुख और घर का रूपया पैसा और मकान आदि सुख देखा जाता है. उपाय – 1 किलो जौ दूध में धोकर और एक सुखा नारियल चलते पानी में बहायें और 1 किलो चावल मंदिर में चढ़ा दे, अगर चन्द्र राहू के साथ है और यदि चन्द्र केतु के साथ है तो चूना पत्थर ले उसे एक भूरे कपडे में बांध कर पानी में बहा दे और एक लाल तिकोना झंडा किसी मंदिर में चढ़ा दे.  
शिव कवच से चंद्र दोष का निवारण होता है
 
।।श्रीगणेशाय नम:।।
विनियोगः- ॐ अस्य श्रीशिवकवचस्तोत्रमंत्रस्य ब्रह्मा ऋषि: अनुष्टप् छन्द:। श्रीसदाशिवरुद्रो देवता। ह्रीं शक्‍ति:। रं कीलकम्। श्रीं ह्री क्लीं बीजम्। श्रीसदाशिवप्रीत्यर्थे शिवकवचस्तोत्रजपे विनियोग:।
कर-न्यास: – ॐ नमो भगवते ज्वलज्ज्वालामालिने ॐ ह्लांसर्वशक्तिधाम्ने ईशानात्मने अंगुष्ठाभ्यां नम: । ॐ नमो भगवते ज्वलज्ज्वालामालिने ॐ नं रिं नित्यतृप्तिधाम्ने तत्पुरुषात्मने तर्जनीभ्यां नम: । ॐ नमो भगवते ज्वलज्ज्वालामालिने ॐ मं रुं अनादिशक्‍तिधाम्ने अघोरात्मने मध्यामाभ्यां नम: । ॐ नमो भगवते ज्वलज्ज्वालामालिने ॐ शिं रैं स्वतंत्रशक्तिधाम्ने वामदेवात्मने अनामिकाभ्यां नम: । ॐ नमो भगवते ज्वलज्ज्वालामालिने ॐ वांरौं अलुप्तशक्तिधाम्ने सद्यो जातात्मने कनिष्ठिकाभ्यां नम: । ॐ नमो भगवते ज्वलज्ज्वालामालिने ॐयंर: अनादिशक्तिधाम्ने सर्वात्मने करतल करपृष्ठाभ्यां नम:।
॥ अथ ध्यानम् ॥
वज्रदंष्ट्रं त्रिनयनं कालकण्ठमरिन्दमम् ।
सहस्रकरमत्युग्रं वंदे शंभुमुपतिम् ॥ १ ॥
।।ऋषभ उवाच।।
अथापरं सर्वपुराणगुह्यं निशे:षपापौघहरं पवित्रम् ।
जयप्रदं सर्वविपत्प्रमोचनं वक्ष्यामि शैवं कवचं हिताय ते ॥ २ ॥
नमस्कृत्य महादेवं विश्‍वव्यापिनमीश्‍वरम्।
वक्ष्ये शिवमयं वर्म सर्वरक्षाकरं नृणाम् ॥ ३ ॥
शुचौ देशे समासीनो यथावत्कल्पितासन: ।
जितेन्द्रियो जितप्राणश्‍चिंतयेच्छिवमव्ययम् ॥ ४ ॥
ह्रत्पुंडरीक तरसन्निविष्टं स्वतेजसा व्याप्तनभोवकाशम् ।
अतींद्रियं सूक्ष्ममनंतताद्यंध्यायेत्परानंदमयं महेशम् ॥ ५ ॥
ध्यानावधूताखिलकर्मबन्धश्‍चरं चितानन्दनिमग्नचेता: ।
षडक्षरन्याससमाहितात्मा शैवेन कुर्यात्कवचेन रक्षाम् ॥ ६ ॥
मां पातु देवोऽखिलदेवत्मा संसारकूपे पतितं गंभीरे
तन्नाम दिव्यं वरमंत्रमूलं धुनोतु मे सर्वमघं ह्रदिस्थम् ॥ ७ ॥
सर्वत्रमां रक्षतु विश्‍वमूर्तिर्ज्योतिर्मयानंदघनश्‍चिदात्मा ।
अणोरणीयानुरुशक्‍तिरेक: स ईश्‍वर: पातु भयादशेषात् ॥ ८ ॥
यो भूस्वरूपेण बिर्भीत विश्‍वं पायात्स भूमेर्गिरिशोऽष्टमूर्ति: ॥
योऽपांस्वरूपेण नृणां करोति संजीवनं सोऽवतु मां जलेभ्य: ॥ ९ ॥
कल्पावसाने भुवनानि दग्ध्वा सर्वाणि यो नृत्यति भूरिलील: ।
स कालरुद्रोऽवतु मां दवाग्नेर्वात्यादिभीतेरखिलाच्च तापात् ॥ १० ॥
प्रदीप्तविद्युत्कनकावभासो विद्यावराभीति कुठारपाणि: ।
चतुर्मुखस्तत्पुरुषस्त्रिनेत्र: प्राच्यां स्थितं रक्षतु मामजस्त्रम् ॥ ११ ॥
कुठारवेदांकुशपाशशूलकपालढक्काक्षगुणान् दधान: ।
चतुर्मुखोनीलरुचिस्त्रिनेत्र: पायादघोरो दिशि दक्षिणस्याम् ॥ १२ ॥
कुंदेंदुशंखस्फटिकावभासो वेदाक्षमाला वरदाभयांक: ।
त्र्यक्षश्‍चतुर्वक्र उरुप्रभाव: सद्योधिजातोऽवस्तु मां प्रतीच्याम् ॥ १३ ॥
वराक्षमालाभयटंकहस्त: सरोज किंजल्कसमानवर्ण: ।
त्रिलोचनश्‍चारुचतुर्मुखो मां पायादुदीच्या दिशि वामदेव: ॥ १४ ॥
वेदाभ्येष्टांकुशपाश टंककपालढक्काक्षकशूलपाणि: ॥
सितद्युति: पंचमुखोऽवतान्मामीशान ऊर्ध्वं परमप्रकाश: ॥ १५ ॥
मूर्धानमव्यान्मम चंद्रमौलिर्भालं ममाव्यादथ भालनेत्र: ।
नेत्रे ममा व्याद्भगनेत्रहारी नासां सदा रक्षतु विश्‍वनाथ: ॥ १६ ॥
पायाच्छ्र ती मे श्रुतिगीतकीर्ति: कपोलमव्यात्सततं कपाली ।
वक्रं सदा रक्षतु पंचवक्रो जिह्वां सदा रक्षतु वेदजिह्व: ॥ १७ ॥
कंठं गिरीशोऽवतु नीलकण्ठ: पाणि: द्वयं पातु: पिनाकपाणि: ।
दोर्मूलमव्यान्मम धर्मवाहुर्वक्ष:स्थलं दक्षमखातकोऽव्यात् ॥ १८ ॥
मनोदरं पातु गिरींद्रधन्वा मध्यं ममाव्यान्मदनांतकारी ।
हेरंबतातो मम पातु नाभिं पायात्कटिं धूर्जटिरीश्‍वरो मे ॥ १९ ॥
ऊरुद्वयं पातु कुबेरमित्रो जानुद्वयं मे जगदीश्‍वरोऽव्यात् ।
जंघायुगंपुंगवकेतुख्यातपादौ ममाव्यत्सुरवंद्यपाद: ॥ २० ॥
महेश्‍वर: पातु दिनादियामे मां मध्ययामेऽवतु वामदेव: ॥
त्रिलोचन: पातु तृतीययामे वृषध्वज: पातु दिनांत्ययामे ॥ २१ ॥
पायान्निशादौ शशिशेखरो मां गंगाधरो रक्षतु मां निशीथे ।
गौरी पति: पातु निशावसाने मृत्युंजयो रक्षतु सर्वकालम् ॥ २२ ॥
अन्त:स्थितं रक्षतु शंकरो मां स्थाणु: सदापातु बहि: स्थित माम् ।
तदंतरे पातु पति: पशूनां सदाशिवोरक्षतु मां समंतात् ॥ २३ ॥
तिष्ठतमव्याद्‍भुवनैकनाथ: पायाद्‍व्रजंतं प्रथमाधिनाथ: ।
वेदांतवेद्योऽवतु मां निषण्णं मामव्यय: पातु शिव: शयानम् ॥ २४ ॥
मार्गेषु मां रक्षतु नीलकंठ: शैलादिदुर्गेषु पुरत्रयारि: ।
अरण्यवासादिमहाप्रवासे पायान्मृगव्याध उदारशक्ति: ॥ २५ ॥
कल्पांतकोटोपपटुप्रकोप-स्फुटाट्टहासोच्चलितांडकोश: ।
घोरारिसेनर्णवदुर्निवारमहाभयाद्रक्षतु वीरभद्र: ॥ २६ ॥
पत्त्यश्‍वमातंगघटावरूथसहस्रलक्षायुतकोटिभीषणम् ।
अक्षौहिणीनां शतमाततायिनां छिंद्यान्मृडोघोर कुठार धारया २७ ॥
निहंतु दस्यून्प्रलयानलार्चिर्ज्वलत्रिशूलं त्रिपुरांतकस्य ।
शार्दूल सिंहर्क्षवृकादिहिंस्रान्संत्रासयत्वीशधनु: पिनाक: ॥ २८ ॥ दु:स्वप्नदु:शकुनदुर्गतिदौर्मनस्यर्दुर्भिक्षदुर्व्यसनदु:सहदुर्यशांसि ।
उत्पाततापविषभीतिमसद्‍ग्रहार्ति व्याधींश्‍च नाशयतु मे जगतामधीश: ॥ २९ ॥
ॐ नमो भगवते सदाशिवाय सकलतत्त्वात्मकाय सर्वमंत्रस्वरूपाय सर्वयंत्राधिष्ठिताय सर्वतंत्रस्वरूपाय सर्वत्त्वविदूराय ब्रह्मरुद्रावतारिणे नीलकंठाय पार्वतीमनोहरप्रियाय सोमसूर्याग्निलोचनाय भस्मोद्‍धूलितविग्रहाय महामणिमुकुटधारणाय माणिक्यभूषणाय सृष्टिस्थितिप्रलयकालरौद्रावताराय दक्षाध्वरध्वंसकाय महाकालभेदनाय मूलाधारैकनिलयाय तत्त्वातीताय गंगाधराय सर्वदेवाधिदेवाय षडाश्रयाय वेदांतसाराय त्रिवर्गसाधनायानंतकोटिब्रह्माण्डनायकायानंतवासुकितक्षककर्कोटकङ्‍खकुलिक पद्ममहापद्मेत्यष्टमहानागकुलभूषणायप्रणवस्वरूपाय चिदाकाशाय आकाशदिक्स्वरूपायग्रहनक्षत्रमालिने सकलाय कलंकरहिताय सकललोकैकर्त्रे सकललोकैकभर्त्रे सकललोकैकसंहर्त्रे सकललोकैकगुरवे सकललोकैकसाक्षिणे सकलनिगमगुह्याय सकल वेदान्तपारगाय सकललोकैकवरप्रदाय सकलकोलोकैकशंकराय शशांकशेखराय शाश्‍वतनिजावासाय निराभासाय निरामयाय निर्मलाय निर्लोभाय निर्मदाय निश्‍चिंताय निरहंकाराय निरंकुशाय निष्कलंकाय निर्गुणाय निष्कामाय निरुपप्लवाय निरवद्याय निरंतराय निष्कारणाय निरंतकाय निष्प्रपंचाय नि:संगाय निर्द्वंद्वाय निराधाराय नीरागाय निष्क्रोधाय निर्मलाय निष्पापाय निर्भयाय निर्विकल्पाय निर्भेदाय निष्क्रियय निस्तुलाय नि:संशयाय निरंजनाय निरुपमविभवायनित्यशुद्धबुद्ध परिपूर्णसच्चिदानंदाद्वयाय परमशांतस्वरूपाय तेजोरूपाय तेजोमयाय जय जय रुद्रमहारौद्रभद्रावतार महाभैरव कालभैरव कल्पांतभैरव कपालमालाधर खट्‍वांगखड्गचर्मपाशांकुशडमरुशूलचापबाणगदाशक्‍तिभिंदिपालतोमरमुसलमुद्‌गरपाशपरिघ भुशुण्डीशतघ्नीचक्राद्यायुधभीषणकरसहस्रमुखदंष्ट्राकरालवदनविकटाट्टहासविस्फारितब्रह्मांडमंडल नागेंद्रकुंडल नागेंद्रहार नागेन्द्रवलय नागेंद्रचर्मधरमृयुंजय त्र्यंबकपुरांतक विश्‍वरूप विरूपाक्ष विश्‍वेश्वर वृषभवाहन विषविभूषण विश्‍वतोमुख सर्वतो रक्ष रक्ष मां ज्वल ज्वल महामृत्युमपमृत्युभयं नाशयनाशयचोरभयमुत्सादयोत्सादय विषसर्पभयं शमय शमय चोरान्मारय मारय ममशमनुच्चाट्योच्चाटयत्रिशूलेनविदारय कुठारेणभिंधिभिंभधि खड्‌गेन छिंधि छिंधि खट्‍वांगेन विपोथय विपोथय मुसलेन निष्पेषय निष्पेषय वाणै: संताडय संताडय रक्षांसि भीषय भीषयशेषभूतानि निद्रावय कूष्मांडवेतालमारीच ब्रह्मराक्षसगणान्‌संत्रासय संत्रासय ममाभय कुरु कुरु वित्रस्तं मामाश्‍वासयाश्‍वासय नरकमहाभयान्मामुद्धरसंजीवय संजीवयक्षुत्तृड्‌भ्यां मामाप्याय-आप्याय दु:खातुरं मामानन्दयानन्दयशिवकवचेन मामाच्छादयाच्छादयमृत्युंजय त्र्यंबक सदाशिव नमस्ते नमस्ते नमस्ते।
।। ऋषभ उवाच ।। 
इत्येतत्कवचं शैवं वरदं व्याह्रतं मया ॥
सर्वबाधाप्रशमनं रहस्यं सर्वदेहिनाम् ॥ ३० ॥
य: सदा धारयेन्मर्त्य: शैवं कवचमुत्तमम् ।
न तस्य जायते क्वापि भयं शंभोरनुग्रहात् ॥ ३१ ॥
क्षीणायुअ:प्राप्तमृत्युर्वा महारोगहतोऽपि वा ॥
सद्य: सुखमवाप्नोति दीर्घमायुश्‍चविंदति ॥ ३२ ॥
सर्वदारिद्र्य शमनं सौमंगल्यविवर्धनम् ।
यो धत्ते कवचं शैवं सदेवैरपि पूज्यते ॥ ३३ ॥
महापातकसंघातैर्मुच्यते चोपपातकै: ।
देहांते मुक्‍तिमाप्नोति शिववर्मानुभावत: ॥ ३४ ॥
त्वमपि श्रद्धया वत्स शैवं कवचमुत्तमम्
धारयस्व मया दत्तं सद्य: श्रेयो ह्यवाप्स्यसि ॥ ३५ ॥
॥ सूत उवाच ॥ 
इत्युक्त्वाऋषभो योगी तस्मै पार्थिवसूनवे ।
ददौ शंखं महारावं खड्गं चारिनिषूदनम् ॥ ३६ ॥
पुनश्‍च भस्म संमत्र्य तदंगं परितोऽस्पृशत् ।
गजानां षट्‍सहस्रस्य द्विगुणस्य बलं ददौ । ३७ ॥
भस्मप्रभावात्संप्राप्तबलैश्वर्यधृतिस्मृति: ।
स राजपुत्र: शुशुभे शरदर्क इव श्रिया ॥ ३८ ॥
तमाह प्रांजलिं भूय: स योगी नृपनंदनम् ।
एष खड्‍गो मया दत्तस्तपोमंत्रानुभावित: ॥ ३९ ॥
शितधारमिमंखड्गं यस्मै दर्शयसे स्फुटम् ।
स सद्यो म्रियतेशत्रु: साक्षान्मृत्युरपि स्वयम् ॥ ४० ॥
अस्य शंखस्य निर्ह्लादं ये श्रृण्वंति तवाहिता: ।
ते मूर्च्छिता: पतिष्यंति न्यस्तशस्त्रा विचेतना: ॥ ४१ ॥
खड्‌गशंखाविमौ दिव्यौ परसैन्य निवाशिनौ ।
आत्मसैन्यस्यपक्षाणां शौर्यतेजोविवर्धनो ॥ ४२ ॥
एतयोश्‍च प्रभावेण शैवेन कवचेन च ।
द्विषट्‍सहस्त्रनागानां बलेन महतापि च ॥ ४३ ॥
भस्मधारणसामर्थ्याच्छत्रुसैन्यं विजेष्यसि ।
प्राप्य सिंहासनं पित्र्यं गोप्तासि पृथिवीमिमाम् ॥ ४४ ॥
इति भद्रायुषं सम्यगनुशास्य समातृकम् ।
ताभ्यां पूजित: सोऽथ योगी स्वैरगतिर्ययौ ॥ ४५ ॥
।।इति श्रीस्कंदपुराणे एकाशीतिसाहस्त्रयां तृतीये ब्रह्मोत्तरखण्डे अमोघ-शिव-कवचं समाप्तम् ।
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अमावस्या योग या दोष –  
 
 जब सूर्य और चन्द्रमा दोनों  कुण्डली के एक ही घर में विराजित हो जावे तब इस दोष का निर्माण होता है। जैसे की आप सब जानते है की अमावस्या को चन्द्रमा किसी को दिखाई नही देता उसका प्रभाव क्षीण हो जाता है। ठीक उसी प्रकार किसी जातक की कुंडली में यह दोष बन रहा हो तो उसका चन्द्रमा प्रभावशाली नही रहता। और चन्द्रमा को ज्योतिष में कुण्डली का प्राण माना जाता है और जब चन्द्रमा ही प्रभाव हीन हो जाए तो यह किसी भी जातक के लिए कष्टकारी हो जाता है क्योंकि यही हमारे मन और मस्तिक्ष का करक ग्रह है। इसलिए अमावस्या दोष को महर्षि पराशर जी ने बहुत बुरे योगो में से एक माना है, जिसकी व्याख्या उन्होंने अपने ग्रन्थ बृहत पराशर होराशास्त्र में बड़े विस्तार से की है तथा उसके उपाय बताये है।  जोकि में आगे अपने ब्लॉग पर  कुछ समय बाद प्रकाशित करूँगा।  ज्योतिष में ऐसा माना जाता है कि सूर्य और चन्द्र दो भिन्न तत्व के ग्रह है सूर्य अग्नि तत्व और चन्द्र जल तत्त्व, इस प्रकार जब दोनों मिल जाते है तो वाष्प बन जाती है कुछ भी शेष नही रह जाता।
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ग्रहण योग या दोष –  
 
जब सूर्य या चन्द्रमा की युति राहू या केतु से हो जाती है तो इस दोष का निर्माण होता है।  चन्द्र ग्रहण और सूर्य ग्रहण दोष की अवस्था में जातक डर व घबराहट महसूस करता है। चिडचिडापन उसके स्वभाव का हिस्सा बन जाता है। माँ के सुख में कमी आती है।  किसी भी कार्य को शुरू करने के बाद उसे सदा अधूरा छोड़ देना व नए काम के बारे में सोचना इस योग के लक्षण हैं।  मैंने अपने ३ साल के छोटे से अनुभव में ऐसी कई कुण्डलियाँ देखी  है जिनमे यह योग बन रहा था और जातक किसी न किसी फोबिया या किसी न किस प्रकार का डर  से ग्रसित थे। जिन लोगो में दिमाग में हमेशा यह डर लगा रहता है, उदाहरण के लिए समझे  कि “मैं   पहड़ो पर जैसे मनाली या शिमला घूमने जाऊँगा तो बस पलट जाएगी।  रेल  से वहां जाऊंगा तो रेल में बम बिस्फोट हो जायेगा।” इस प्रकार के सारे नकारात्मक विचार इसी दोष के कारण मन में आते है। अमूमन किसी भी प्रकार के फोबिया अथवा किसी भी मानसिक बीमारी जैसे डिप्रेसन ,सिज्रेफेनिया आदि इसी दोष के प्रभाव  के कारण माने गए हैं यदि यहाँ चंद्रमा अधिक दूषित हो जाता है या कहें अन्य पाप प्रभाव में भी होता है, तो मिर्गी ,चक्कर व पूर्णत: मानसिक संतुलन खोने का डर भी होता है।  सूर्य द्वारा बनने वाला ग्रहण योग पिता सुख में कमी करता है।  जातक का शारीरिक ढांचा कमजोर रह जाता है।  आँखों व ह्रदय सम्बन्धी रोगों का कारक बनता है। सरकारी नौकरी या तो मिलती नहीं या उसको निभाना कठिन होता है डिपार्टमेंटल इन्क्वाइरी, सजा, जेल, परमोशन में रुकावट सब इसी दोष का परिणाम है।       
 
उपाय  – जरूरी नही की हम हज़ारो रुपए लगा कर, भारी भरकम उपाय कर के ही ग्रहों का या भगवन का पूजन कर उपाय करे जैसे की आजकल ज्योतिष बताते है। बरन हम छोटे छोटे उपाय करके भी भगवन तथा ग्रहों को प्रसन्न कर सकते है। बस उस किये गए उपाय में  सच्ची श्रधा भाव तथा उस परम पिता परमेश्वर में विश्वास होना अनिवार्य है। सूर्य देवता के लिए और चन्द्र देवता के लिए भी हम यह उपाय कर उन अपनी कुण्डली में उन्हें बलवान बना सकते है।  
 
सूर्य से बने ग्रहण दोष में या कुण्डली  में सूर्य देव के कमजोर होने पर हमे सूर्य देवता को प्रीतिदिन अर्घ्य देना चाहिए उसमे थोड़ा गुड, कुमकुम तथा कनेर के पुष्प या कोई भी लाल रंग पुष्प  डाले तथा सूर्य भगवान को यह मंत्र “ॐ  घृणि  सूर्याय नमः ” या  “ॐ ह्रां  ह्रीं  ह्रौं सः सूर्याय नमः” जप ते  हुए अर्घ्य दे। इसके अलावा अति प्राचीन और सर्वमान्य आदित्य ह्रदय स्तोत्र का पाठ सूर्य देवता की पूजा करने के लिए बहुत ही महत्वपूर्ण तथा सर्वोपरि माना गया है तथा यह अपने प्रभाव जातक को शीघ्र ही अनुभव में करवा देता है। 
        
चन्द्रमा और राहु या केतु से बनने वाले चन्द्र ग्रहण दोष के लिए सबसे अच्छा उपाय शिव जी भगवन की पूजा उनका प्रीतिदिन जल से कच्चे दूध से अभिषेक करना अति लाभदायक सिध्द होता है क्योंकि चन्द्रमा शिव जी भगवान की जटाओं में विराजमान है तथा शिव जी भगवन की पूजा से अति प्रस्सन होता है। इसके अलावा चन्द्रमा देवता के यन्त्र को घर में पूजा की जगह विराजित करे  और अपनी पूजा के समय (सुबह और शाम) यन्त्र का भी धूप दीप से पूजन करे  चन्द्रमा के मंत्र  “ॐ श्राम श्रीम् श्रोम सः चन्द्रमसे नमः ” का जाप  करे ।
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केमद्रुम योग या दोष – 
 
चन्द्रमा से बनने वाला ये दोष अपने आप में महासत्यानाशी दोष है यदि चंद्रमा से द्वितीय और द्वादश दोनों स्थानों में कोई ग्रह नही हो तो केमद्रुम नामक या दोष  बनता है या फिर आप इसे इस प्रकार समझे चन्द्रमा कुंडली के जिस भी घर में हो, उसके आगे और पीछे के घर में कोई ग्रह न हो। इसके अलावा चन्द्रमा की किसी ग्रह से युति न हो या चंद्र को कोई शुभ ग्रह न देखता हो तो कुण्डली में केमद्रुम दोष  बनता है। केमद्रुम दोष के संदर्भ में छाया ग्रह राहु केतु की गणना नहीं की जाती है।  जिस भी  व्यक्ति की कुण्डली में यह दोष बनता हो उसे सजग हो जाना चाइये।
 
इस दोष  में उत्पन्न हुआ व्यक्ति जीवन में कभी न कभी  किसी न किस पड़ाव पर दरिद्रता एवं संघर्ष से ग्रस्त होता है।  अपने ज्योतिष के अनुभव में मेने ऐसे ऐसे व्यक्ति देखे है जिन्होंने बड़ी मेहनत करके पैसा कमाया लेकिन कुछ एक सालो बाद सब बर्बाद हो गया,  तो यह इसी दोष  कार्य का है। जीवन में सब कुछ वापिस ले लेना और फिर शून्य स्थिति में लाना भी  इसी दोष का कार्य है।  
इसके साथ ही साथ ऐसे व्यक्ति अशिक्षित या कम पढा लिखे , निर्धन एवं मूर्ख भी हो सकते  है।  यह भी कहा जाता है कि केमदुम योग वाला व्यक्ति वैवाहिक जीवन और संतान पक्ष का उचित सुख नहीं प्राप्त कर पाता है।  वह सामान्यत: घर से दूर ही रहता है।  व्यर्थ बात करने वाला होता है कभी कभी उसके स्वभाव में नीचता का भाव भी देखा जा सकता है।  
           
उपाय  – केमद्रुम योग के अशुभ प्रभावों को दूर करने हेतु कुछ उपायों को करके इस योग के अशुभ प्रभावों को कम करके शुभता को प्राप्त किया जा सकता। सोमवार के दिन भगवान शिव के मंदिर जाकर शिवलिंग का जल व  गाय के कच्चे दूध से अभिषेक करे व पूजा करें।  भगवान शिव ओर माता पार्वती का पूजन करें।  रूद्राक्ष की माला से शिवपंचाक्षरी मंत्र ” ऊँ नम: शिवाय” का जप करें ऎसा करने से  केमद्रुम योग के अशुभ फलों में कमी आएगी।  घर में दक्षिणावर्ती शंख स्थापित करके नियमित रुप से श्रीसूक्त का पाठ करें।  दक्षिणावर्ती शंख में जल भरकर उस जल से देवी लक्ष्मी की मूर्ति को स्नान कराएं तथा चांदी के श्रीयंत्र में मोती धारण करके उसे सदैव अपने पास रखें  या धारण करें। 
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कमजोर चन्द्रमा का अन्य ग्रहों पर प्रभाव——
 
जन्म कुंडली में चन्द्रमा कमजोर हो तो अन्य ग्रहों की सार्थकता कम हो जाती है.पूर्ण चन्द्रमा शुभ ग्रह की श्रेणी में  आता है व अपूर्ण चन्द्रमा अशुभ ग्रह की श्रेणी में आता है.
 
उपाय और लाभ—-
 
 चन्द्रमा के अधिदेवता भी शिव हैं और इसके प्रत्याधिदेवता जल है. अत: महामृत्युंजय मंत्र जाप शिव पूजा एवं शिव कवच का पाठ चंद्रपीड़ा में श्रेयस्कर है ही,साथ ही प्रत्याधिदेवता जल होने के कारण गणेशोपासना (विशेष रुप से केतु के साथ चंद्र हो तो) भी शुभदायी है,क्योंकि गणेश जलतत्व के स्वामी हैं. गौरी,दुर्गा,काली,ललिता और भैरव की उपासना भी हितकर है.
 
दुर्गा सप्तशती का पाठ तो नवग्रह पीड़ा में लाभप्रद रहता ही है, क्योंकि यह समस्त ग्रहों को अनुकूल करता है व सर्व सिद्धिदायक है. इसके अलावा चंद्र मंत्र व चंद्रस्तोत्र का पाठ भी अतिशुभ है.
 
चंद्रमा की पीड़ा शांति के निमित्त नियमित (अथवा कम से कम सोमवार को) चंद्रमा के मंत्र का 1100 बार जाप करना अभिष्ट होता है.
 
जाप मंत्र इस प्रकार है-
 
ऊँ श्रां श्रीं श्रौं स: चन्द्रमसे नम:.
 
चंद्र नमस्कार के लिए निम्लिखित मंत्र का प्रयोग करें-
 
दधि शंख तुषारामं क्षीरोदार्णव सम्भवम्.
नमामि शशिनं भक्तया शम्भोर्मकुट भूषणम्..
 
चंद्रमा सोम के नाम से भी जाने जाते हैं तथा मन,औषधियों एवं वनस्पतियों के स्वामी कहे गए हैं.
 
शिव का महामृत्युंजय मंत्र तो चंद्र पीड़ा के साथ-साथ सभी ग्रह पीड़ाओं का निवारण कर मृत्यु पर विजय प्राप्त करने का सामर्थ्य देता है. वह इस प्रकार है-
 
त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्
उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्ष्रिय मामृतात्.
 
इसे मृत संजीवनी मंत्र भी कहा गया है.यह मंत्र दैत्य गुरु शुक्राचार्य़ द्वारा दधीचि ऋषि को प्रदान किया गया था.चन्द्र दोष निवारण के लिये शिवरात्रि पर रुद्राभिषेक करवाएं.यदि आपके आसपास कोई शिव मंदिर हो तो वहां जाकर विशेष पूजा -अर्चना करनी चाहिए.उस रात्रि को संभव हो तो शिव मंदिर में जाकर जागरण करें |
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जन्म कुंडली के सभी भाव में ग्रहण दोष और उनका निवारण—
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लग्न कुंडली में किसी भी भाव में सूर्य के साथ केतु या चंद्रमा के साथ राहू की युति हो तो ग्रहण योग बनता है |इसके अलावा सप्तम या द्वादश भाव में नीच के शुक्र [कन्या राशी में ] के साथ राहू की युति को भी कुछ विद्वान ग्रहण दोष की संज्ञा देते है | 
 
ग्रहण योग का दुष्प्रभाव कुंडली के विभिन्न भावों में अलग – अलग देखने को मिलता है |
 
प्रथम भाव- व्यक्ति गुस्सेल, स्वस्थ्य में कमी, रुखा स्वभाव व निज स्वार्थ सर्वोपरी मानने वाला होता है |
द्वितीय भाव- धन की चिंता करना, सरकारी छापे राजकार्य में धन की बर्बादी और मेहनत का परिणाम अल्प मिलता है |
तीसरा भाव- भाई-बंधुओ से कलह रहती है | यह योग जातक को शांतचित नही रहने देता |
चतुर्थ भाव- मानसिक परेशानी व अस्थिरता, निकटस्थ लोगो से वैचारिक मतभेद व हीनभावना से ग्रस्त व्यक्ति होता है |
पंचम भाव- बचपन कठोर व वृद्धावस्था संघर्षो से भरी हुई होती है | दरिद्रता, मित्रो का अभाव व गृह कलह रहता है |
छठा भाव- विविध रोग विशेष कर हृदय रोग, कदम कदम पर दुश्मनी पालने वाला, परस्त्रीगामी, संदेहास्पद व्यक्तित्व का जातक होता है |
सप्तम भाव- क्रोधी स्वभाव, कायाक्षीण, द्वि- भार्या योग,संकीर्ण मनोवृति व जीवनसाथी हमेशा स्वस्थ्य से संघर्षशील रहता है |
अष्टम भाव- अल्पायु योग का निर्माण, दुर्घटना का भय, बीमारी व दुष्ट मित्रो के माध्यम से धन का नाश होता है | यदि अन्य योग ठीक हो तो अल्पायु योग समाप्त हो सकता है
नवम भाव- शिक्षा व आजीविका के लिए निरंतर संघर्ष, व्यर्थ की यात्राएं, किसी का भी सहयोग नही, भाग्य वृद्धि 48 वर्ष के पश्चात होती है |
दशम भाव- माता-पिता के सुख में कमी, असंयमी, रोजगार के लिए संघर्षशील व्यक्ति रहता है |
ग्यारवाँ भाव- जिद्दी, गलत बात पर अड़ने वाला, आय के साधन अनिश्चित, ठगी, खुद भी धोखा खा सकता है |
बारहवां भाव- संघर्षशील व परेशानो का भरा जीवन, प्रेम विवाह [जाती से बहार] योग, व्यर्थ के व्ययों की भरमार, पिता के सुख में कमी व निरंतर उत्थान पतन का सामना करना पड़ता है |
 
ऐसे करें दोष निवारण उपाय —-
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जयंतीमंगला काली भद्रकाली कृपालिनी |
दुर्गा क्षमा शिव धात्री, स्वाहा सवधा नमोस्तुते ||
 
ग्रहण योगजनित दोषों का निवारण जयंती का अवतार जीण की आराधना से होता है | 
 
इसका ज्वलंतउदाहरण यह है के हमारे यहाँ पर ग्रहण काल में किसी भी देवी-देवता की पूजा नही होती है | जबकि जीण की पूजा ग्रहण काल में भी मान्य है | गृह जनित योग यहाँ पर निष्प्रभावी हो जाते है | इस लिए जिन लोगो की कुंडली में ग्रहण-दोष है, वे निम्न प्रकार जीण की आराधना करे | जीण के नाम से संकल्प लेकर शुक्लपक्ष की अष्टमी के 42 उपवास करे | यदि ग्रहण दोष 1 , 3 , 6 , 8 , 11 , व
12 , भावों में है, तो शुक्लपक्ष की एकम से जीण की प्रतिमा के आगे तेल की अखंड जोत जलाकर अष्टमी तक नित्य पूजा अर्चना करे | शेष भावों 2 , 4 , 5 , 7 , 9 व 10 , भावों में ग्रहण दोष है, तो अखंड जोत घी की जलाई जाती है व शेष क्रिया यथावत रखे | इससे ग्रह दोष जनित बाधाओं का निवारण होता है |
by pt. dayanand shastri

जानिए हस्तरेखा से (ओर कुंडली) से निसंतान को संतान तक—-

जानिए हस्तरेखा से (ओर कुंडली) से निसंतान को संतान तक—-
यदि किसी व्यक्ति को संतान प्राप्ति में समस्या आ रही हो, तो ऐसे व्यक्ति इस लेख में लिखे गये सरल उपायों को अपना कर संतान की प्राप्ति अति ही सहजता के साथ कर सकते हैं। किंतु उपायों को अति सावधानी से व श्रद्धा के साथ करना अति आवश्यक होता है। उपाय निम्नवत हैं:
1. संतान प्राप्ति के लिए पति-पत्नी दोनों को रामेश्वरम् की यात्रा करनी चाहिए तथा वहां सर्प-पूजन करवाना चाहिए। इस कार्य को करने से संतान-दोष समाप्त होता है।
2. स्त्री में कमी के कारण संतान होने में बाधा आ रही हो, तो लाल गाय व बछड़े की सेवा करनी चाहिए। लाल या भूरा कुत्ता पालना भी शुभ रहता है।
3. यदि विवाह के दस या बारह वर्ष बाद भी संतान न हो, तो मदार की जड़ को शुक्रवार को उखाड़ लें। उसे कमर में बांधने से स्त्री अवश्य ही गर्भवती हो जाएगी।
4. जब गर्भ धारण हो गया हो, तो चांदी की एक बांसुरी बनाकर राधा-कृष्ण के मंदिर में पति-पत्नी दोनों गुरुवार के दिन चढ़ायें तो गर्भपात का भय/खतरा नहीं होता।
5. यदि बार-बार गर्भपात होता है, तो शुक्रवार के दिन एक गोमती चक्र लाल वस्त्र में सिलकर गर्भवती महिला के कमर पर बांध दें। गर्भपात नहीं होगा।
6. जिन स्त्रियों के सिर्फ कन्या ही होती है, उन्हें शुक्र मुक्ता पहना दी जाये, तो एक वर्ष के अंदर ही पुत्र-रत्न की प्राप्ति होगी।
7. यदि बच्चे न होते हों या होते ही मर जाते हों, तो मंगलवार के दिन मिट्टी की हांडी में शहद भरकर श्मशान में दबायें।
8. पीपल की जटा शुक्रवार को काट कर सुखा लें, सूखने के बाद चूर्ण बना लें। उसको प्रदर रोग वाली स्त्री प्रतिदिन एक चम्मच दही के साथ सेवन करें। सातवें दिन तक मासिक धर्म, श्वेत प्रदर तथा कमर दर्द ठीक हो जाएगा।
9. संतान प्राप्ति के लिए इनमें से किसी भी मंत्र का नियमित रूप से एक माला प्रतिदिन पाठ करें।
1. ओऽम् नमो भगवते जगत्प्रसूतये नमः।
2. ओऽम क्लीं गोपाल वेषघाटाय वासुदेवाय हूं फट् स्वाहा।
3. ओऽम नमः शक्तिरूपाय मम् गृहे पुत्रं कुरू कुरू स्वाहा।
4. ओऽम् हीं श्रीं क्लीं ग्लौं।
5. देवकी सुत गोविन्द वासुदेवाय जगत्पते। देहिं ये तनयं कृबज त्यामहं शरणंगत।
प्रिय पाठकों/मित्रों, ज्योतिषाचार्य पंडित दयानंद शास्त्री ने बताया की इनमें से आप जिस मंत्र का भी चयन करें उस पर पूर्ण श्रद्धा व आस्था रखें। विश्वासपूर्वक किये गये कार्यों से सफलता शीघ्र मिलती है। मंत्र पाठ नियमित रूप से करें।
कृष्ण के बाल रूप का चित्र लगाएं। लड्डू गोपाल का चित्र या मूर्ति लगाना लाभदायक होता है। क्रम संख्या 4 व 5 पर दिए गये मंत्र शीघ्र फलदायक हैं। इन्हें संतान गोपाल मंत्र भी कहा जाता है।
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इच्छित संतान प्राप्ति के सुगम उपाय –
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 यदि किसी दंपति की संतान संबंधी कोई समस्या है जैसे गर्भ न ठहरना, गर्भपात हो जाना, मृत बच्चे का जन्म होना, संतान का बीमार रहना, मंदबुद्धि बच्चे का जन्म आदि तो घरेलू उपाय कर स्वस्थ, बुद्धिमान तथा योग्य संतान प्राप्त कर सकते हैं। यहां प्रस्तुत हैं इन्हीं समस्याओं के निदान के अनेकानेक उपाय…
संतान प्राप्ति की कामना मनु महाराज द्वारा वर्णित तीन नैसर्गिक इच्छाओं में से एक है। निःसंतान रहना एक भयंकर अभिशाप है। यह पूर्व जन्म में किए गए कर्मों के फल है या फल का भोग है। संतान हो किंतु दुष्ट और कुल -कीर्तिनाशक हो तो यह स्थिति और अधिक कष्टदायक होती है। जिनके संतान नहीं होती है भारत में उनकी तीन श्रेणियां मानी जाती हैं।
1. जन्मवंध्या 2. काक वंध्या 3. मृतवत्सा।
काक वंध्या वह होती है जिसके केवल एक संतान होती है।
2. मृतवत्सा के संतान तो होती है पर जीवित नहीं रहती।
3. जन्मवंध्या के संतान होती ही नहीं। यहां तीनों श्रेणियों की स्त्रियों की इस अभिशाप से मुक्ति के कुछ टोटके दिए जा रहे हैं जिनका निष्ठापूर्वक प्रयोग करने से लाभ मिल सकता है।
जन्मवंध्या: रासना नामक एक जड़ी को रविवार के दिन जड़ डंठल और पत्ते सहित उखाड़ लाएं। इसे 11 वर्ष से कम आयु अर्थात कुमारी कन्या के हाथ से एक रंग की गाय के दूध् में पिसवा कर रख लें। ऋतु काल में मासिक धर्म के दिनों में इसे चार तोले के हिसाब से एक सप्ताह पीने से संतान उत्पन्न होती है। ध्यान रहे यह प्रयोग तीन चार बार दोहराना पड़ सकता है।
एक रुद्राक्ष और एक तोला सुगंध रासना को कुमारी कन्या के हाथ से एक रंग की गाय के दूध में पिसवा कर पीएं। ‘¬ ददन्महागणपते रक्षा-मृत मत्सुत देहि’ इस मंत्र से औषधि को 21 बार अभिमंत्रित कर ले।
काकवंध्या: काक वंध्या वह कहलाती है जिसके एक ही बार संतान हो। यदि ऐसी स्त्रियां संतान की इच्छा रखती हों तो ये प्रयोग करें।
रवि पुष्य योग में दिन को असगंध की जड़ उखाड़ लाएं और भैंस के दूध के साथ पीस कर दो तोला रोज खाएं।
विष्णुकांता की जड़ रविपुष्य के दिन ला कर पूर्वोक्त प्रकार से भैंस के दूध के साथ पीस पर भैंस के ही दूध के मक्खन के साथ सात दिन तक खाने से संतान प्राप्त होती है। यह प्रयोग ऋतुकाल में ही करें।
मृतवत्सा: मृतवत्सा वह होती है जिसके संतान होती तो अवश्य है परंतु जीवित नहीं रहती। इसमें गाय का घी काम में लिया जाना चाहिए। खास कर उसका जिसका बछड़ा जीवित हो।
मजीठ, मुरहठी, कूट, त्रिफला, मिश्री, खरैंटी, महामेदा, ककोली, क्षीर काकोली, असगंध की जड़, अजमोद, हल्दी, दारु हल्दी, हिंगु टुटकी, नीलकमल, कमोद, दाख, सफेद चंदन और लाल चंदन ये सब वस्तुएं चार-चार तोला लेकर कूट-छानकर एक किलो घी में मिलाकर उपलों पर मंदी आंच पर पकानी चाहिए। जब केवल घी की मात्रा के बराबर रह जाए तो छान कर रख लेना चाहिए। इसका प्रयोग पति-पत्नी दोनों करें तो पुत्र उत्पन्न होगा जो स्वस्थ तथा सुंदर होगा। जब तक इन वस्तुओं का सेवन किया जाए तब तक हल्का भोजन करना चाहिए। भगवान के प्रति पूर्ण आस्था रखते हुए दिन में सोने, तामसिक पदार्थों के सेवन, भय, चिंता, क्रोध आदि तथा तेज सर्दी और गर्मी से बचना चाहिए। कुछ और प्रयोग भी हैं जो इस प्रकार हैं।
ऋतु काल में नए नागकेसर के बारीक चूर्ण को गाय के घी के साथ मिला कर खाने से भी संतान प्राप्त होती है।
जटामांसी (एक जड़ी का नाम) को चावल के पानी के साथ पीने से संतान प्राप्त होती है।
मंगलवार को कुम्हार के घर जाएं और कुम्हार से प्रार्थना पूर्वक मिट्टी के बर्तन काटने वाला डोरा ले आएं। उसे किसी गिलास में जल भर कर उसमें डाल दें। कुछ समय पश्चात डोरे को निकाल लें और वह पानी पति-पत्नी दोनों पी लें। यह क्रिया मंगलवार को ही करें। अगर संभव हो तो पति-पत्नी रमण करें। गर्भ की स्थिति बनते ही डोरे को हनुमान जी के चरणों में रख दें। बार-बार गर्भपात होने पर
मुलहठी, आंवला और सतावर को भली भांति पीस कर कपड़ाछान कर लें और इसका सेवन रविवार से प्रारंभ करें। गाय के दूध के साथ लगभग 6 ग्राम प्रतिदिन लें।
मंगलवार को लाल कपड़े में थोड़ा सा नमक बांध लें। इसके बाद हनुमान के मंदिर जाएं और पोटली को हनुमान जी के पैरों से स्पर्श कराएं। वापस आकर पोटली को गर्भिणी के पेट से बांध दें गर्भपात बंद हो जाएगा। पुत्र प्राप्ति हेतु
विजोरे की जड़ को दूध में पका कर घी में मिला कर पीएं। ऋतुकाल में इस प्रयोग को प्रारंभ कर सम संख्या वाले दिनों में समागम करने से पुत्र प्राप्त होता है।
पुत्राभिलाषियों को अपने घर में स्वर्ण अथवा चांदी से निर्मित सूर्य-यंत्र की स्थापना करनी चाहिए। यंत्र के पूर्वाभिमुख बैठकर दीपक जलाकर यं त्रऔर सूर्य देव को प्रणाम करते हुए सूर्य मंत्र का 108 बार नित्य श्रद्धा से जप करना चाहिए। दीपक में चारों ओर बातियां (बत्तियां) होनी चाहिए। घृत का चतुर्मुखी दीपक जप-काल में प्रज्वलित रहना चाहिए।
षष्ठी देवी का एक वर्ष तक पूजन अर्चन करने से पुत्र-संतान की प्राप्ति होती है। ऊँ ह्रीं षष्ठी देव्यै स्वाहा मंत्र का प्रतिदिन 108 बार जप करते हुए षष्ठी देवी चालीसा, षष्ठी देवी स्तोत्र का पाठ करना चाहिए। कथा भी पढ़नी सुननी चाहिए।
श्रावण शुक्ल एकादशी का पुत्रदा एकादशी व्रत पुत्र सुख देता है। व्रत संपूर्ण विधि से करें।
स्त्रियां पुत्रदायक मंगल व्रत कर सकती हैं जिसे बैशाख या अगहन मास में प्रारंभ करना चाहिए। व्रत वर्ष भर प्रत्येक मंगल को करें और नित्य मंगल की स्तुति करें।
जिसको पुत्र प्राप्त नहीं हो रहा है वह स्त्री रविवार को प्रातः काल उठकर सिर धोकर खुले बाल फैलाकर उगते सूर्य को अघ्र्य दे और उनसे श्रेष्ठ पुत्र प्राप्ति की प्रार्थना करे। इस प्रकार 16 रविवार तक करे तो सफलता निश्चित प्राप्त होती है।
जिस स्त्री को पुत्र नहीं हो रहा हो वह अपने घर में 21 तोले का प्राण प्रतिष्ठित चैतन्य पारद शिवलिंग स्थापित कराए और प्रत्येक सोमवार को सिर धोकर पीठ पर बाल फैलाकर ‘ऊँ नमः शिवायः’ मंत्र से उस पारद शिवलिंग पर धीरे-धीरे जल चढ़ाए और 7 बार उस जल का चरणामृत ले। इस प्रकार 16 सोमवार करे तो पुत्र प्राप्ति के लिए शंकर से की जाने वाली प्रार्थना अवश्य फलित होती है।
पति को चाहिए कि वह पत्नी को कम से कम 4 ( रत्ती का शुद्ध पुखराज स्वर्ण अंगूठी में गुरु पुष्य नक्षत्र में जड़वाकर तथा गुरु मंत्रों से अभिमंत्रित करवाकर शुभ मुहूर्त में पत्नी को धारण करवाए। इससे पुत्र प्राप्ति की संभावना बढ़ती है।
प्राण प्रतिठित संतानगोपाल यंत्र प्राप्त कर उसे एक थाली में पीले पुष्प की पंखुड़ियां डालकर स्थापित करें। यंत्र का पूजन पुष्प, कुंकुंम अक्षत से करें, दीपक लगाकर (यंत्र के दोनों ओर घी के दीपक लगाएं) निम्न मंत्र का पुत्र जीवा माला से एक माला जप नित्य करें। निरंतर 21 दिन तक करें तो सफलता प्राप्त होती है। ।।‘‘ऊँ हरिवंशाय पुत्रान् देहि देहि नमः।।’’ 21 दिन पश्चात यंत्र और माला बहते जल में प्रवाहित करे दें।
रक्त गुणा की जड़ को शुभ योग में प्राप्त कर तांबे की ताबीज में रखकर भुजा या कमर में धारण करने वाली स्त्री को पुत्र की प्राप्ति होती है।
एक बेदाग नीबू का पूरा रस निचोड़ लें। इसमें थोड़ा सा नमक स्वाद के अनुसार मिला लें। अब इस द्रव को लड्डू गोपाल के आगे थोड़ी देर के लिए रख दें। रात को सोने से पूर्व स्त्री इस द्रव को पी ले और पति-पत्नी अपने धर्म का पालन करें तो अवश्य पुत्र ही होगा। ध्यान रहे यह क्रिया केवल एक बार ही करनी है, बार-बार नहीं।
यदि संतान न हो रही हो तो मंगलवार को मिट्टी के बर्तन में शुद्ध शहद भर कर ढक्कन लगा कर श्मशान में गाड़ दें।
उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्र में नीम की जड़ ला कर पास रखें, संतान अवश्य होगी।
वास्तुशास्त्र के अनुसार घर में बोरिंग के पानी टैंक या कुएं का उत्तर-पश्चिम कोण में होना भी संतान उत्पत्ति में बाधक माना गया है। उपाय के लिए पांचमुखी हनुमान जी का चित्र ऐसे लगाएं कि वह पानी को देखें।
असगंध का भैंस के दूध के साथ सात दिन तक लें। यह उपाय पुष्य नक्षत्र में रविवार को शुरू करें। इससे पुत्र उत्पन्न होता है।
गोखरू, लाल मखाने, शतावर, कौंच के बीज, नाग बला और खरौंटी समान भाग में पीस कर रख लें। इस चूर्ण को रात्रि में पांच ग्राम दूध के साथ लें।
रविवार पुष्य योग के दिन (पुष्य नक्षत्र) सफेद आक की जड़ गले में बांधने से भी गर्भ की रक्षा होती है। इसके लिए धागा लाल ही प्रयोग करें।
‘‘ऊँ ह्रां ह्रीं ह्रूं पुत्रं कुरु कुरु स्वाहा‘‘- यह जप यंत्र है। वांछित यंत्र स्वर्ण अथवा चांदी के अतिरिक्त स्वर्ण पालिश वाला यंत्र भी समान रूप से लाभकारी होता है। निःसंतान दंपतियों को सूर्य का स्तवन भी करना चाहिए जैसे सूर्याष्टक, सूर्यमंडलाष्टकम् आदि। इन स्तोत्रों का निरंतर श्रद्धा भक्ति पूर्वक पाठ जातक को तु.रंत सुखानुभूति देता है। स्वरुचि के अनुसार सूर्य देवता की अन्य किसी भी स्तुति का पाठ कर सकते हैं। (पति पत्नी दोनों अथवा कोई भी एक)
किसी योग्य ज्योतिष के परामर्शानुसार अथवा कुलगुरु, पुरोहित से सलाह लेकर संतान गोपाल मंत्र का जप स्वयं करें अथवा योग्य, अनुभवी कर्मकांडी ब्राह्मण से विधि विधान के साथ करावें। मंत्रानुष्ठान एक लाख मंत्र जप शास्त्र सम्मत माना गया है। इसमें निश्चित समय, निश्चित स्थान, निश्चित आसन और निश्चित संख्या में प्रतिदिन जप करने का विधान है।
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गर्भधारण करके के लिए तथा बांझपन दूर करने के लिए कुछ अच्‍छे उपाय । 
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 आज के आधुनिक युग में गर्भधारण संबंधी बहुत सी परेशानियां हैं। बांझपन इसमें कोढ़ में खाज का काम करती है। मैं पिछले कुछ वर्षों से देख रही हूं कि अधिकांश महिलाओं को गर्भधारण में बहुत परेशानी आ रही है। हमारा खानपान और आधुनिक जीवन शैली हम पर ही भारी पड़ रही है। हर महिला का सपना होता है कि वह शादी के बाद जल्‍दी से जल्‍दी मां बने और उसके आंगन में बच्‍चों की किलकारियां गूंजें। पर यदि सब कुछ कुछ सामान्‍य नहीं है तो फिर बहुत परेशानी होती है। डॉक्‍टरों के यहां रोज रोज चक्‍कर लगाने से ही फुर्सत नहीं मिलती। आपकी कुछ मुश्किलों को मैं कर सकूं इसलिए कुछ अच्‍छे नुस्‍खे आपकी सेवा में प्रस्‍तुत कर रही हूं।
========बांझपन की दशा में=============
१ * सेमर की जड़ पीसकर ढाई सौ ग्राम पानी में पकाएं और फिर इसे छान लें। मासिक धर्म के बाद चार दिन तक इसका सेवन करें।
२ * ५० ग्राम गुलकंद में २० ग्राम सौंफ मिलाकर चबाकर खाएं और ऊपर से एक ग्‍लास दूध नियमित रूप से पिएं। इससे आपको बांझपन से मुक्ति मिल सकती है।
३ * गुप्‍तांगों की साफ सफाई पर विशेष ध्‍यान दें। खाने में जौ, मूंग, घी, करेला, शालि चावल, परवल, मूली, तिल का तेल, सहिजन आदि जरूर शामिल करें।
४ * पलाश का एक पत्‍ता गाय के दूध में औटाएं और उसे छानकर पिएं। मासिक धर्म के बाद से पीना शुरू करें और ७ दिनों तक प्रयोग करें।
५ * पीपल के सूखे फलों का चूर्णं बनाकर रख लें। मासिक धर्म के बाद ५ – १० ग्राम चूर्णं खाकर ऊपर से कच्‍चा दूध पिएं। यह प्रयोग नियमित रूप से १४ दिन तक करें।
६ * मासिक धर्म के बाद से एक सप्‍ताह तक २ ग्राम नागकेसर के चूर्णं को दूध के साथ सेवन करें। आपको फाएदा होगा।
७ * ५ ग्राम त्रिफलाधृत सुबह शाम सेवन करने से गर्भाशय की शुद्धि होती है। जिससे महिला गर्भधारण करने के योग्‍य हो जाती है।
========गर्भधारण हेतू कुछ उपाय=========
१ * तीन ग्राम गोरोचन, १० ग्राम असगंध, १० ग्राम गजपीपरी तीनों को बारीक पीसकर चूर्णं बनाएं। फिर पीरिएड के चौथे दिन से निरंतर पांच दिनों तक इसे दूध के साथ पिएं।
२ * महिलाओं को शतावरी चूर्णं घी – दूध में मिलाकर खिलाने से गर्भाशय की सारी विकृतियां दूर हो जाएंगीं और वे गर्भधारण के योग्‍य होगी।
३ * १० ग्राम पीपल की ताज़ी कोंपल जटा जौकुट करके ५०० मि.ली. दूध में पकाएं। जब वह मात्र २०० मि.ली. बचे तो उतारकर छान लें। फिर इसमें चीनी और शहद मिलाकर पीरिएड होने के ५वें या ६ठे दिन से खाना शुरू कर दें। यह बहुत अच्‍छी औषधि मानी जाती है |
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शीघ्र पतन निवारक सरल चिकित्सा
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संभोगरत पुरुष का वीर्य उसकी इच्छा के विरुद्ध शीघ्र स्खलित हो जाने को शीघ्र पतन या जल्दी छूट की व्याधि कहा जाता है। पुरुष अपने वीर्य के छूटने के आवेग को नियंत्रित नहीं रख पाता है। ऐसे पुरुष स्त्री को संतुष्ट नहीं कर पाते है। 
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यह स्थिति हर व्यक्ति के जीवन में कभी न कभी जरूर आती है। ४० वर्ष से कम उम्र के पुरुषों मे यह रोग अधिकतर पाया जाता है। संभोग क्रिया के समय लिंग का कडा या कठोर नहीं पडना बहुत गंभीर दोष है क्योंकि सुस्त और ढीले लिंग से संभोग क्रिया संपन्न करना बेहद मुश्किल का काम है। संभोग में कितने समय तक वीर्य पात नहीं होना चाहिये, इसका कोई वेज्ञानिक मापदंड नही है। लेकिन शीघ्रपतन की सबसे खराब स्थिति में लिंग प्रविष्ट करते ही वीर्य छूट जाता है। 
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कुछ पुरुष तो यौनि में लिंग भी प्रविष्ट नहीं कर पाते और वीर्य स्खलन हो जाता है। शीघ्र पतन रोगी संभोग के दौरान चाह कर भी वीर्य छूटना नहीं रोक सकता है। सेक्स में लगने वाला समय प्रत्येक व्यक्ति की शारीरिक और मानसिक स्थिति के अनुसार लंबा या छोटा हो सकता है।
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संभोग शुरू करने पर ६० सेकंड्स याने एक मिनिट से कम समय में पुरुष खारीज हो जाता है तो यह शीघ्र पतन का रोग माना जाता है। शीघ्र पतन रोगी को हम नपुंसक की श्रेणी में नहीं रख सकते हैं, क्योंकि अधिकांश शीघ्र पतन रोगी सेक्स के जरिये स्त्री को गर्भवती करने में सफ़ल होते हैं। फ़िर भी शीघ्र पतन रोगी अपने पार्टनर को संभोग से संतुष्ट नही कर पाता है। गृहस्थि जीवन मे आनंद का अभाव पसरने लगता है।
शीघ्र पतन के लक्षण-
१) शीघ्र पतन रोगी का लिंग बहुत जल्दी उत्तेजना में आजाता है और लिंग में पर्याप्त कठोरता न आने के बावजूद वीर्यपात हो जाता है। लिंग में कडापन नहीं आने से कभी -कभी तो लिंग यौनि में प्रविष्ट करने में भी मुश्किल होती है।
२) रोगी व्यक्ति अश्लील चित्र देखते हैं या नदी तालाब मे नहाती कम वस्त्र स्त्रियों को देखता है तो उत्तेजना होकर वीर्य निकल जाता है।
३) संभोग के दौरान स्त्री चरम उत्तेजना पर नहीं पहुंच पाती और स्त्री के खारीज होने के पहिले ही मर्द खारीज हो जाता है। पुरुष का लिंग एकदम सुस्त पड जाता है। स्त्री मन मसोस कर रह जाती है।
४) शीघ्र पतन रोगी का वीर्य पतला पड जाता है।
५) पेशाब या शौच निवृत्त होते वक्त जोर लगाने से वीर्य की बूंदे निकल जाती है।
इस विषम स्थिति से निजात पाने के लिये मैं कुछ उपचारों का उल्लेख कर रहा हूं जिनके समुचित प्रयोग से पुरुष भरपूर सेक्स का आनंद लेने के काबिल हो जाता है–
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१) तालमखाना के बीज ५० ग्राम लेकर अदरक के रस में आधा घंटे भिगोएं,फ़िर सुखाएं। आपको ऐसा तीन बार करना है। अब इनका चूर्ण बनालें। अब इस चूर्ण को २०० ग्राम शहद में अच्छी तरह मिश्रण करके शीशी में भर ले शीघ्र पतन की दवा तैयार है। १० ग्राम औषधि सुबह-शाम गाय के दूध के साथ लेने से जल्दी छूट होने की व्याधि में लाभ होता है।
२) सतावर का चूर्ण ३ ग्राम मीठे दूध( मिश्री मिला दूध) के साथ लेते रहने से शीघ्र पतन रोग नष्ट होता है।
३) तुलसी के पांच पत्ते और ३ ग्राम बीज(तुलसी के) नागर वेल के पान में रखकर चबाकर खाएं । शीघ्र पतन की अच्छा उपचार है।
४) असगंध और सतावर चूर्ण ३-३ ग्राम दूध के साथ सुबह -शाम लेते रहने से शीघ्र पतन रोग काबू में आ जाता ह।
५) शिलाजीत इस रोग की महान औषधि मानी गई है। विश्वसनीय निर्माता का ही शिलाजित खरीदें। वर्ना धोखा हो सकता है।
६) गाजर का रस २०० मिलि में लहसुन के रस की १० बूंदे डालकर पीना स्तंभन बढाने वाला होता है।
उडद की दाल २० ग्राम पानी में ३ घंटे भिगोएं फ़िर पीसलें इसमें घी और शहद १०-१० ग्राम मिश्रित कर चाट लें और ऊपर से एक गिलास मिश्री मिला दूध पी जाएं। संभोग शक्ति वर्धक उपचार है।
7) शीघ्र पतन की समस्या से निजात पाने के लिये एक बहुत ही कारगर उपचार लिख देता हूं,जरूर लाभ उठावें–
देशी घी २०० ग्राम,शहद १०० ग्राम ,मुलहठी १०० ग्राम और बंग भस्म २० ग्राम लेकर भली प्रकार मिश्रण बनाएं। यह दवा एक चम्मच सुबह और एक चम्मच शाम को लेते रहने से कई पुरुष लाभान्वित हुए हैं।
८) पांव के तलवे पर दस मिनट तक ठंडे जल की धार लगाने से शीघ्र पतन में लाभ होता है।
९) ७ नग बादाम,३ नग काली मिर्च और ३ ग्राम मिश्री मिलाकर चूर्ण करलें गरम दूध के साथ पीते रहने से जल्दी छूट नहीं होगी।
१० ) रात को सोते वक्त पेडू और जननेंद्रिय पर मिट्टी की पटी लगाना चाहिये। कुछ ही दिन में फ़र्क नजर आयेगा।
११) शीघ्र पतन रोगी को कब्ज रहती हो तो सुबह -शाम कुन कुने पानी से एनीमा करना चाहिये। इससे कब्ज भी ठीक होगी और शरीर के दूषित पदार्थ बाहर निकलेंगे।
१२) शीघ्र पतन रोगी को २४ घंटे में ४ लिटर पानी पीने की आदत डालना चाहिये।
१३) नीली बोतल का सूर्य तप्त जल २५ मिलि की मात्रा मे दिन में आठ बार पीने से शीघ्र पतन रोग नष्ट होता है|
१४) शीघ्र पतन की समस्या निवारण के लिये दो सेक्स सत्र के बीच की अवधि कम रखें। ज्यादा दिन बाद सेक्स करेंगे तो वीर्य पात जल्दी होगा।
१५) हस्तमैथुन की आदत हो तो तुरंत त्याग दें। अश्लील चित्र ,फ़िल्म न देखें
१६) तालमखाना २०० ग्राम,सफ़ेद मूसली १०० ग्राम, गोखरू २५० ग्राम और मिश्री ६०० ग्राम लेकर चूर्ण बनालें। एक चम्मच सुबह -शाम लेते रहने से लिंग पुष्ट होगा और जल्दी छूट से छुटकारा मिलेगा।
१७) संभोग के एक सत्र (सेशन) में करीब ४०० से ५०० केलोरी उर्जा खर्च होती है इसलिये संभोग के दौरान तुरंत उर्जा प्रप्त करने के लिये ग्लुकोस,दूध,जुस आदि का उपयोग करना उचित है। इस अवधि में हल्की फ़ुल्की बात चीत करते रहने से संभोग का समय बढाया जा सकता है।
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गर्भ धारण करने के लिए :: Remedies to conceive
अगर आपको किसी कारणवश गर्भ धारण नहीं हो रहा हो तो मंगलवार के दिन कुम्हार के घर आएं और उसमें प्रार्थना कर मिट्टी के बर्तन वाला डोरा ले आएं। उसे किसी गिलास में जल भरकर दाल दें। कुछ समय पश्चात डोरे को निकाल लें और वह पानी पति-पत्नी दोनों पी लें। यह क्रिया केवल मंगलवार को ही करनी है अगर संभव हो तो उस दिन पति-पत्नी अवश्य ही रमण करें। गर्भ की स्थिति बनते ही उस डोरे को हनुमानजी के चरणों में रख दें।
दांपत्य सुख हेतु यदि चाहते हुए वैवाहिक सुख नहीं मिल पा रहा है, हमेशा पति-पत्नि में किसी बात को लेकर अनबन रहती हो तो किसी भी शुक्रवार के दिन यह उपाय करें। मिट्टी का पात्र ले जिसमें सवा किलो मशरूम आ जाएं। मशरूम डालकर अपने सामने रख दें। पति-पत्नि दोनों ही महामृत्युंजय मंत्र की तीन माला जाप करें। तत्पश्चात इस पात्र को मां भगवती के श्री चरणों में चुपचाप रखकर आ जाए। ऐसा करने से मां भगवती की कृपा से आपका दांपत्य जीवन सदा सुखी रहेगा।
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पुत्र प्राप्ति—
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 वासुदेव यज्ञ अर्थात कृष्ण यज्ञ प्रमुख रूप से पुत्र प्राप्ति के उद्देश्य से किया जाता है। मनु ने पुत्र की प्राप्ति के लिए यह यज्ञ किया था, जिससे उन्हें दस पुत्र हुए। ऐसा उल्लेख भागवत में आया है। इस यज्ञ का विधान अतिप्राचीन है। पुत्र प्राप्ति हेतु वासुदेव यज्ञ इस प्रकार करना चाहिए।
शास्त्रों के मतानुसार कृष्णयज्ञ को विधिपूर्वक सम्पन्न करने के लिए जरूरी है कि यज्ञकर्ता उपवास और प्रायश्चित कर्म करें।
इसके बाद यज्ञकर्ता अपनी धर्मपत्नी सहित बंधु-बांधव, इष्ट-मित्रों के साथ सूर्यार्घ्य देकर शंख ध्वनि के साथ यज्ञमंडप के पश्चिम द्वार से प्रवेश करे।
तत्पश्चात्‌ आचार्य दिग्‌रक्षण, मण्डपप्रोक्षण, वास्तुपूजन, मंडपपूजन, न्यासपूर्वक प्रधानपूजन, योगिनीपूजन, क्षेत्रपालपूजन, अरणिमंथन, पंचभूसंस्कार सहित अग्निस्थापन, कुशकण्डिका, ग्रहपूजन, आधार-आज्यभागत्याग, ग्रह हवन, न्यास तथा प्रधान देवता का पुरुषसूक्त के मंत्रों से पंडित या आचार्य द्वारा हवन कराएं।
मण्डप पूजन तथा प्रधान देवता की आहुति पूर्णाहुतिपर्यंत प्रत्येक दिन करें।
प्रधानाहुति पूर्ण होने के बाद गोदुग्ध से निर्मित खीर द्वारा पुरुष सूक्त से और कृष्णसहस्रनामावली से आचार्य हवनकर्म संपन्न कराएं। इसके उपरांत ही आवाहित देवताओं ( जिन देवताओं का आह्वान किया है) का वैदिक मंत्र से या उनके नाम मंत्र से हवन कराएं। उपरान्त अग्निपूजन स्विष्टकृत, नवाहुति, दशदिक्‌पालादिबलि, पूर्णाहुति तथा वसोर्धाराकर्म संपन्न कराएं।
इसके पश्चात ही त्र्यायुष तथा पूर्ण पात्र दान कर्म यथोचित्‌ रूप से कराएं। उपरोक्त कर्मों की समाप्ति के पश्चात शैयादान, प्रधानपीठ तथा मंडपदान का संकल्प कर्ता से कराएं। इन कर्मों को करने के पश्चात आचार्य यज्ञकर्ता से भूयसी दक्षिणा तथा कर्मांगोदानादिकर्म संकल्पपूर्वक कराएं। शास्त्रोक्त विधि से अभिषेक, अवभृथस्नान करके कर्ता कृष्णयज्ञ में उपस्थित सभी ब्राह्मणों को दक्षिणा प्रदान करें।
उपरोक्त वैदिक कर्मों की समाप्ति के पश्चात देवविसर्जन करके कर्ता अपने इष्ट-मित्रों, संबंधियों एवं परिवार के लोगों के साथ ब्राह्मण भोजन कराएं।
कृष्णयज्ञ- भगवान विष्णु के अवतार, सोलह कलाओं से पूर्ण भगवान श्रीकृष्ण का यह याग पांच, सात, आठ या नौ दिन में संपन्न होता है। कृष्णयज्ञ में पुरुषसूक्त के सोलह मंत्रों से व कृष्ण सहस्रनामावली द्वारा हवन होता है। विष्णुयज्ञ के सदृश इसमें भी सोलह हजार आहुति होती है। इस यज्ञ में हवन सामग्री ग्यारह मन कही गई है। इस यज्ञ को सम्पन्न कराने के लिए सोलह या इक्कीस विद्वानों का आचार्य सहित वरण होता है।
कृष्णयज्ञ का मुहूर्त- चैत्र में अथवा फाल्गुन में या ज्येष्ठ मास में अथवा वैशाख मास में या फिर माघ मास में कृष्णयज्ञ किया जा सकता है। इन मासों में किया गया कृष्णयज्ञ शुभकारी होता है।
शुक्ल पक्ष की द्वितीया, तृतीया, पंचमी, सप्तमी, दशमी, त्रयोदशी तथा द्वादशी तिथि को भगवान विष्णु के अवतार श्रीकृष्ण का यह यज्ञ त्रैवर्णिक कर सकते हैं।
पुत्र प्राप्ति का सरल मंत्र
आज भी कुछ परंपरावादी लोग यह मानते हैं कि वंश मात्र लड़कों से ही चलता है। जबकि पुत्रियां चारों दिशाओं में अपनी विजय पताका लहरा रही है। पुत्र प्राप्ति के लिए लोग कई प्रकार के तंत्र-मंत्र-यंत्र और टोटके अपनाते हैं जो गलत भी हो सकते हैं। यहां पेश है पुत्र प्राप्ति के लिए अत्यंत सरल उपाय।
पुत्र प्राप्ति का सरल मंत्र 
श्री गणपति की मूर्ति पर संतान प्राप्ति की इच्छुक महिला प्रतिदिन स्नानादि से निवृत होकर एक माह तक बिल्ब फल चढ़ाकर ‘ॐ पार्वतीप्रियनंदनाय नम:’ मंत्र की 11 माला प्रतिदिन जपने से संतान प्राप्ति होती है।
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गर्भधान संस्कार-
दाम्पत्य जीवन का सबसे बड़ा उदेश्य यही है की श्रेष्ठ गुणो वाली ,शरीर से स्वस्थ, चरित्रवान, संस्कारी संतान को उत्पन्न करना जो आगे चल कर अपने व अपने परिवार के साथ साथ समाज का कल्याण भी कर सके | यूँ तो प्राकृतिक रूप से उचित समय पर सम्भोग करने से संतान का होना स्वाभाविक है पर कुछ दम्पति आज भी संतान उत्पन्न करने से पहले उस पर विचार करते है | कुछ तो डॉक्टर की सलाह ले कर कार्य करते है | जो कि आज के समय में जरुरी भी है पर साथ में गर्भ धारण से पूर्ण इस बात पर भी विचार करे जो गर्भधारण संस्कार में भी होती है | जिसमे गर्भधारण करने से पूर्व समय स्थान के अनुसार तिथि महूर्त का भी विशेष महत्व है वैसे तो कई मंत्रो का भी गर्भ धारण से पूर्व करना जरूरी होता है पर अक्सर देखा जाता है कि कोई कम ही ध्यान देता है इन बातो पर सर्व प्रथम तो माता पिता को अपनी होने वाली संतान के लिए मानसिक व शारीरिक रूप से तैयारी करनी पड़ती है, क्योकिं आने वाली संतान उनकी ही आत्मा का प्रतिरूप होती है | इस लिए ही पुत्री को आत्मजा व पुत्र को आत्मज कहते है सुश्रुत सहिंता के अनुसार और वेसे भी स्त्री व पुरुष जैसा आहार व्यवहार और अपनी इच्छा में संयुक्त होकर परसपर समागम करते है उनकी संतान भी उसी स्वभाव की उत्पन्न होती है |
आपने अक्सर देखा होगा की गर्भ धारण करने के बाद स्त्री के कमरे में सुबह उठते ही उसकी आँखो के सामने सुन्दर शिशु का चित्र लगा देते है जो उसके मन भाव से उसी प्रकार की संतान चाहने का रूप होता है | यह सही है पर अपने कुल के या किसी महापुरुष का चित्र भी उसके आवभाव का बच्चे पर प्रभाव छोड़ता है जो बच्चे को अपनी माँ के मन से पैदा हुए विचारो से प्राप्त होता है |
पुत्र व पुत्री की प्राप्ति के लिए हमारे ग्रंथों में बहुत कुछ दिया है धर्म परायण के अनुसार पति पत्नी को गर्भ धारण करने से पूर्व अपने व दुसरो के हित के लिए व उस संतान के लिए जो अभी मन में है बीज नही बना उसके लिए अपने गुरु व बड़ो आदि का आशिर्वाद लेकर प्रार्थना करनी चाहिए | रात्रि के तीसरे पहर गर्भ धारण करने से संतान हरिभक्त व धर्म परायण होती है | इसके लिए वर्जित समय भी है जो काफी कुछ जानकारी यहाँ भी बता देते है कि योग्य संतान के लिए वर्जित समय जैसे धर्म के समय, गन्दगी या मालिनता वाला स्थान, सुबह या सांय के समय, चिंता क्रोध व बुरे विचारो के साथ, श्राध या प्रदोष काल में किसी दुसरे के घर, मंदिर, धर्मशाला, शमशानघाट, नदी किनारे, समुद्र के मध्य गति से दौड़ते किसी वाहन के मध्य, घर में शोक या काफी शोर के मध्य इन सब बातो व समय, स्थान को (वर्जित ) ध्यान में रख कर ही गर्भ धारण करना चाहिये | गर्भ धारण संस्कार करने से पहले महिला को चाहिये की ऋतुकाल में रजोदर्शन के बाद स्नान कर पूर्वकाल रहित चौथे दिन या सम दिन में महॅूर्त विचार कर देवी देवताओं का पूजन कर सौभाग्यशाली व संतानवान स्त्रिओं से फल, नारियल आदि लेकर आमवस्या की अधिष्ट देवी व सरस्वती के मंत्र पाठ पुजा प्रार्थना कर व बाकी देवी-देवता, ग्रह, नक्षत्र, देवताओं को अपने गर्भ को पुष्ट करने हेतु प्रार्थना कर पुनः ब्राहम्णो को दान व भोजन का सेवन करवा कर सुंदर व गुणवान संतान के लिए आशिर्वाद लेना चाहिये |
हमारे पुराने आयुर्वेद ग्रन्थों में पुत्र-पुत्री प्राप्ति हेतु दिन-रात, शुक्ल पक्ष-कृष्ण पक्ष तथा माहवारी के दिन से सोलहवें दिन तक का महत्व बताया गया है | धर्म ग्रन्थों में भी इस बारे में जानकारी मिलती है | यदि आप संतान प्राप्त करना चाहते हैं और वह भी गुणवान, तो हम आपकी सुविधा के लिए हम यहाँ माहवारी के बाद की विभिन्न रात्रियों की महत्वपूर्ण जानकारी दे रहे हैं |
चौथी रात्रि के गर्भ से पैदा पुत्र अल्पायु और दरिद्र होता है |
पांचवीं रात्रि के गर्भ से जन्मी कन्या भविष्य में सिर्फ लड़की पैदा करेगी |
छठवीं रात्रि के गर्भ से मध्यम आयु वाला पुत्र जन्म लेगा |
सातवीं रात्रि के गर्भ से पैदा होने वाली कन्या बांझ होगी |
आठवीं रात्रि के गर्भ से पैदा पुत्र ऐश्वर्यशाली होता है |
नौवीं रात्रि के गर्भ से ऐश्वर्यशालिनी पुत्री पैदा होती है |
दसवीं रात्रि के गर्भ से चतुर पुत्र का जन्म होता है |
ग्यारहवीं रात्रि के गर्भ से चरित्रहीन पुत्री पैदा होती है |
बारहवीं रात्रि के गर्भ से पुरुषोत्तम पुत्र जन्म लेता है |
तेरहवीं रात्रि के गर्म से वर्णसंकर पुत्री जन्म लेती है |
चौदहवीं रात्रि के गर्भ से उत्तम पुत्र का जन्म होता है |
पन्द्रहवीं रात्रि के गर्भ से सौभाग्यवती पुत्री पैदा होती है |
सोलहवीं रात्रि के गर्भ से सर्वगुण संपन्न, पुत्र पैदा होता है |
व्यास मुनि ने इन्हीं सूत्रों के आधार पर पर अम्बिका, अम्बालिका तथा दासी के नियोग (समागम) किया जिससे धृतराष्ट्र, पाण्डु तथा विदुर का जन्म हुआ | महर्षि मनु तथा व्यास मुनि के उपरोक्त सूत्रों की पुष्टि स्वामी दयानन्द सरस्वती ने अपनी पुस्तक संस्कार विधि में स्पष्ट रूप से कर दी है | प्राचीनकाल के महान चिकित्सक वाग्भट तथा भावमिश्र ने महर्षि मनु के उपरोक्त कथन की पुष्टि पूर्णरूप से की है | लगभग दो हजार वर्ष पूर्व के प्रसिद्ध चिकित्सक एवं सर्जन सुश्रुत ने अपनी पुस्तक सुश्रुत संहिता में स्पष्ट लिखा है कि मासिक स्राव के बाद 4, 6, 8, 10, 12, 14 एवं 16वीं रात्रि के गर्भाधान से पुत्र तथा 5, 7, 9, 11, 13 एवं 15वीं रात्रि के गर्भाधान से कन्या जन्म लेती है |
प्राचीन संस्कृत पुस्तक सर्वोदय में लिखा है कि गर्भाधान के समय स्त्री का दाहिना श्वास चले तो पुत्री तथा बायां श्वास चले तो पुत्र होगा |
वैदिक शास्त्र अनुसार जो स्त्री गर्भ ठहरने के पहले तथा बाद कैल्शियमयुक्त, सातविक भोज्य पदार्थ तथा औषधि का इस्तेमाल करती है उसे अक्सर चरित्रवान संतान तथा जो मेग्निशियमयुक्त भोज्य पदार्थ जैसे मांस, मछली, अंडा आदि तामसिक भोज्य पदार्थ का इस्तेमाल करती है, उसे चरित्रहीन संतान पैदा होती है |
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संतान की प्राप्ति हेतु एक अनुष्ठान यह अनुष्ठान 90 दिनों में पूरा किया जाता है। केवल नब्बे दिनों में सवा लाख मंत्रों का जाप पति-पत्नी दोनों को परस्पर मिलकर करना है। ‘‘सर्व प्रथम संतान गोपाल यंत्र’’ तांबा अथवा रजत पत्र पर गुरु पुष्य नक्षत्र में बनवाकर किसी कर्मकांडी पंडित को बुलाकर यंत्र की प्राण प्रतिष्ठा अवश्य कराएं। करने वाला अच्छा विद्व ान पंडित होना चाहिए तथा कर्मकांडी ब्राह्मण हो। किसी गुरुवार से यह प्रयोग प्रारंभ करा दें तथा स्थान, आसन, जल का स्रोत, गंगाजल से पृथ्वी आसन आदि को पवित्र करना चाहिए। पूजा के समय मुंह पूर्व दिशा की ओर रहना चाहिए। आसन पीले रंग का होना चाहिए तथा पहनने के कपड़े भी पीले रंग का होना चाहिए। पूजा में फूल भी पीले ही रंग का होना चाहिए। वस्त्र दोनों के शुद्ध पवित्र हों व यंत्र की पूजा दोनों में से एक करें। मंत्र – ऊँ क्लीं देवकी सूत गोविन्द वासुदेव जगतपति। देहि में तनय कृष्ण, त्वाम अहम शरणं गतः श्री उच्चै। थाली में केसर हल्दी से अष्टदल बनायें। पीला पुष्प या केसर या हल्दी से रंगे थोड़े पीले चावल चढ़ाना चाहिए। अष्टदल पर यंत्र को विराजमान करें और थाली को चैकी या पटरे पर रखें तब पूजा शुरू करें। पूजा मूल मंत्र से ही करना चाहिए। पुत्र प्राप्ति हेतु कुछ विशेष मंत्रों का जाप 1. ऊँ विचाराय नमो नमः। 2. ऊँ संतानाप नमो नमः। 3. ऊँ गोदाय नमो नमः। 4. ऊँ संतानाप नमः 5. ऊँ शुभम् नमः नमः। 6. ऊँ सुखाय नमो नमः। 7. ऊँ हरये नमः। 8. ऊँ शिशुया नमः। 9. ऊँ स्वाश्य नमः। 10. ऊँ कौति नमः नमः। इन दस मंत्रों में से किसी एक मंत्र का लाॅटरी द्वारा चयन करके एक-एक माला का जाप प्रातः, मध्याह्न एवं सायंकाल में करें। सर्प विष को उतारने का उपाय ऐसी अनेक जड़ी बूटियां हैं जिनके सेवन से रोगी ठीक हो जाते हैं। लेकिन यदि अधिक जहरीला सांप ने काटा है तो उसको अस्पताल में ही दिखाना चाहिए समय अधिक नष्ट होने पर मरीज मर सकता है। – जैसे बांस बसौड़ा को सफेद मूसली सूत के धागे में बांध लें तथा इसको दाहिने हाथ में बांधकर हमेशा साथ रखेंगे तो सर्प का विष नहीं चढ़ता है।
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नपुंसकता (Impotence)
परिचय—
जीवन को सफल बनाने के लिए सेक्स ही सबसे सरल साधन है। स्त्री-पुरुष विवाह के बाद सेक्स संबंध बनाकर अपने प्रेम को बहुत अधिक ताकतवर तथा आनंददायक बना लेते हैं। लेकिन कई बार ऐसा वक्त भी आता है कि उनके सफल जीवन में सेक्स करने की क्षमता न होने के कारण आनंद नहीं मिल पाता है। कई पुरुष एक बार के सेक्स में असफल हो जाने के कारण अपने आप को नपुंसक मानकर वे अपना मानसिक संतुलन खो बैठते हैं और वे अपने मन में नपुंसकता का डर पैदा करके बुरी तरह से बेचैन और तनाव से भर जाते हैं।मेडिकल के अंदर नपुंसकता को इंपोटेंसी भी कह सकते हैं। इस रोग में व्यक्ति मन के अंदर सेक्स के बारे में गलत विचार बनाए रखने की वजह से अपनी स्त्री को पूरी तरह से संतुष्ट नहीं कर पाता है। इस समय में युवा पुरुष सबसे ज्यादा इंपोटेंसी जैसे रोग से ही पीड़ित हैं। दूसरी तरह की नपुंसकता को इनफर्टिलिटी यानि नपुंसकता कहा जा सकता है। इसके अंदर पुरुष अपनी स्त्री को संभोग क्रिया करके उनको संतुष्ट तो कर देगें मगर उन पुरुषों के वीर्य में शुक्राणुओं की मात्रा कम होने की वजह से या बिल्कुल भी न होने की वजह से वे संतान पैदा नहीं कर सकते हैं या वे संतान पैदा करने में नाकाम रहते हैं। 
 
नपुंसकता का उपचार (Impotence Treatment)—
1. अफीमसफेद संखिया तथा शुद्ध अफीम- इन दोनों को 15-15 ग्राम की मात्रा में लेकर 5 लीटर गाय के दूध के अंदर अच्छी तरह से मिलाकर इसके अंदर दही का जामन देकर इसे जमाने के लिए रख दें। सुबह होने के पश्चात इस दही को अच्छी तरह से बिलोकर इसका मक्खन निकाल लें।इसके बाद इस निकाले हुए शुद्ध घी को एक चावल के दाने के बराबर लेकर पान के साथ खाने से तथा लिंग के अग्र भाग (टोपी) को छोड़कर लिंग पर लगाने से नपुंसकता समाप्त हो जाती है।
2. पीपल की छालः-पीपल की छाल, जड़ व कोपलें तथा फल- इन चारों को आधा लीटर गाय के दूध में अच्छी तरह से पका कर इस दूध को छान लें। इसके बाद इस दूध में 25 ग्राम देशी खांड या पीसी हुई मिश्री तथा 15 ग्राम शुद्ध शहद को मिलाकर लगभग 3 से 4 महिनों तक इस दूध को रोगी को पिलाए, इस दूध को पीने से सेक्स करने की ताकत बहुत अधिक बढ़ जाती है और लिंग के होने वाले अन्य रोग भी समाप्त हो जाएंगे। 
3. सफेद प्याजः-सफेद प्याज के 10 ग्राम रस को 5 ग्राम शुद्ध शहद के अंदर मिलाकर सुबह और शाम दोनों समय रोजाना खाते रहने से रक्त के दोष के कारण उत्पन्न नपुंसकता समाप्त हो जाती है। 
4. मुलहटीः-मुलहटी के चूर्ण के अंदर शुद्ध घी और शहद को समान मात्रा में मिलाकर खाने से और उसके ऊपर से चीनी मिला हुआ मीठा दूध पीने से शुक्राणुओं की कमी से आई नपुंसकता खत्म हो जाती है। 
5. जायफलः-जायफल, केशर और जावित्री- इन तीनों को 1 से 2 ग्राम की मात्रा में लेकर 15 ग्राम मीठे बादाम के तेल में खूब बारीक कूट-पीसकर लिंग पर लेप करने से तथा पान में रखकर खाने से अप्राकृतिक ढ़ग से किया हुआ मैथुन से पैदा हुई नपुंसकता समाप्त हो जाती है। लिंग के अंदर बहुत ही अधिक ताकत आती है।अगर पुरुष के अंदर नपुंसकता मानसिक है और उसके अंदर शारीरिक रूप से किसी भी तरह की कोई कमी के न होते हुए भी उस पुरुष को यह हीन भावना आ जाती है कि वह यह सोचता है कि मैं कोई काम कर काम कर पाऊंगा या नहीं, या किसी तरह का कोई डर, मन के अंदर किसी प्रकार का कोई संकोच, अकेले रहने की कमी, अपने मित्रों के साथ सम्मान या नफरत के देखना, सेक्स के प्रति कमजोरी होने से लिंग (शिश्न) में किसी भी तरह की कोई उत्तेजना न होना। लिंग के अंदर पूर्ण रूप से तनाव न हो पाने के कारण कई बार पुरुष अपने आप को सेक्स करने के काबिल नहीं समझता है। अगर उसके ये विकार (कारण) समाप्त कर दिए जाए तो उसे सेक्स क्रिया करने में रुचि अपने आप ही पैदा हो जाएगी तथा अगर नपुंसकता के रोग को अपने जीवन साथी का साथ मिल जाए, आंनद्दित वातावरण और संभोग क्रिया करने में सफल होने का पक्का विश्वास उत्पन्न हो जाए तो वह पुरुष सेक्स करने में सफल हो जाएगा।
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गरुड पुराण के अनुसार योग्य संतान पाने का सही समय—
सभी माता-पिता चाहते हैं कि उनकी संतान उत्तम गुणों से पूर्ण हो और उसमें वह सभी गुण हों जो आगे जाकर उस संतान के उज्जवल भविष्य के लिए जरूरी होना चाहिए, लेकिन दुर्भाग्यवश हर माता-पिता का ये सपना पूरा नहीं हो पाता। गरूड पुराण में उत्तम संतान की प्राप्ति के लिए भगवान विष्णु ने बहुत सी गोपनीय बातें बताई हैं। इस पुराण में ये भी लिखा है कि पति को किस समय पत्नी से दूर रहना चाहिए और उत्तम संतान की प्राप्ति के लिए किस समय गर्भाधान करना चाहिए।
ऋतुकाल में चार दिन तक स्त्री का त्याग करें क्योंकि चौथे दिन स्त्रियां स्नानकर शुद्ध होती हैं और सात दिन में पितृदेव व व्रतार्चन (पूजन आदि करने) योग्य होती है। सात दिन के मध्य में जो गर्भाधान होता है व अच्छा नहीं माना जाता।
गरूड पुराण के अनुसार आठ रात के बाद पत्नी मिलन से उत्तम संतान की प्राप्ति होती है। युग्म दिन ( जैसे- अष्टमी, दशमी, द्वादशी आदि) में पुत्र व अयुग्म (नवमी, एकादशी, त्रयोदशी आदि) में कन्या उत्पन्न होती है इसलिए सात दिन छोड़कर गर्भाधान करें।
सोलह रात तक स्त्रियों का सामान्यत: ऋतुकाल रहता है, उसमें भी चौदहवीं रात में जो गर्भाधान होता है, उससे गुणवान, भाग्यवान, धर्मज्ञ व बुद्धिमान संतान की प्राप्ति होती है। वह रात्रि अभागे पुरुषों को कभी नहीं मिलती।
संतान चाहने वाले पुरूष को पान, फूल, चंदन और पवित्र वस्त्र धारण कर धर्म का स्मरण करते हुए पत्नी के पास जाना चाहिए। गर्भाधान के समय जैसी मनुष्य के मन की प्रवृत्ति होती है, वैसे ही स्वभाव का जीव पत्नी के गर्भ में प्रवेश करता है।
गरुड़ पुराण के अनुसार क्या सोचता है शिशु गर्भ में
गरुड़ पुराण में गर्भ में शिशु की स्थापना से लेकर उसके बाहर आने तक वो क्या क्या करता है क्या क्या सोचता है इसके बारे में भी विस्तारपूर्वक बता रखा है। जो इस प्रकार है
एक रात्रि का जीव कोद (सुक्ष्म कण), पांच रात्रि का जीव बुद्बुद् (बुलबुले) के समान तथा दस दिन का जीवन बदरीफल(बेर) के समान होता है। इसके बाद वह एक मांस के पिण्ड का आकार लेता हुआ अंडे के समान हो जाता है।
एक महीने में मस्तक, दूसरे महीने में हाथ आदि अंगों की रचना होती है। तीसरे महीने में नाखून, रोम, हड्डी, लिंग, नाक, कान, मुंह आदि अंग बन जाते हैं। चौथे महीने में त्वचा, मांस, रक्त, मेद, मज्जा का निर्माण होता है। पांचवे महीने में शिशु को भूख-प्यास लगने लगती है। छठे महीने में शिशु गर्भ की झिल्ली से ढंककर माता के गर्भ में घुमने लगता है।
माता द्वारा खाए गए अन्न आदि से बढ़ता हुआ वह शिशु विष्ठा, मूत्र आदि का स्थान तथा जहां अनेक जीवों की उत्पत्ति होती है, ऐसे स्थान पर सोता है। वहां कृमि जीव के काटने से उसके सभी अंग कष्ट पाते हैं।
इसके बाद शिशु का मस्तक नीचे की ओर तथा पैर ऊपर की ओर हो जाते हैं, वह इधर-उधर हिल नहीं सकता। यहां शिशु सात धातुओं से बंधा हुआ भयभीत होकर हाथ जोड़ ईश्वर की(जिसने उसे गर्भ में स्थापित किया है) स्तुति करने लगता है।
सांतवे महीने में उसे ज्ञान प्राप्ति होती है और वह सोचता है- मैं इस गर्भ से बाहर जाऊँगा तो ईश्वर को भूल जाऊँगा। ऐसा सोचकर वह दु:खी होता है और इधर-उधर घुमने लगता है। सातवे महीने में शिशु अत्यंत दु:ख से वैराग्ययुक्त हो ईश्वर की स्तुति इस प्रकार करता है- लक्ष्मी के पति, जगदाधार, संसार को पालने वाले और जो तेरी शरण आए उनका पालन करने वाले भगवान विष्णु का मैं शरणागत होता हूं।
गर्भस्थ शिशु भगवान विष्णु का स्मरण करता हुआ सोचता है कि हे भगवन्। तुम्हारी माया से मैं मोहित देहादि में और यह मेरे ऐसा अभिमान कर जन्म मरण को प्राप्त होता हूं। मैंने परिवार के लिए शुभ काम किए, वे लोग तो खा-पीकर चले गए। मैं अकेला दु:ख भोग रहा हूं। हे भगवन्। इस योनि से अलग हो तुम्हारे चरणों का स्मरण कर फिर ऐसे उपाय करूंगा, जिससे मैं मुक्ति को प्राप्त कर सकूं।
फिर गर्भस्थ शिशु सोचता है मैं इस गर्भ से अलग होने की इच्छा करता हूं, हे भगवन्। मुझे कब बाहर निकालोगे। सभी पर दया करने वाले ईश्वर ने मुझे ये ज्ञान दिया है, उस ईश्वर की मैं शरण में जाता हूं, इसलिए मेरा पुन: जन्म-मरण होना उचित नहीं है।
गरूड पुराण के अनुसार फिर माता के गर्भ में पल रहा शिशु भगवान से कहता है कि मैं इस गर्भ से अलग होने की इच्छा नहीं करता क्योंकि बाहर जाने से पापकर्म करने पड़ते हैं, जिससे नरकादि प्राप्त होते हैं। इस कारण बड़े दु:ख से व्याप्त हूँ फिर भी दु:ख रहित हो आपके चरण का आश्रय लेकर मैं आत्मा का संसार से उद्धार करूंगा।
इस प्रकार गर्भ में बुद्धि विचार कर शिशु दस महीने तक स्तुति करता हुआ नीचे मुख से प्रसूति के समय वायु से तत्काल बाहर निकलता है। प्रसूति की हवा से उसी समय शिशु श्वास लेने लगता है तथा अब उसे किसी बात का ज्ञान भी नहीं रहता। गर्भ से अलग होकर वह ज्ञान रहित हो जाता है, इसी कारण जन्म के समय वह रोता है।
गरूड पुराण के अनुसार जिस प्रकार बुद्धि गर्भ में, रोगादि में, श्मशान में, पुराण आदि सुनने में रहती है, वैसी बुद्धि सदा रहे तब इस संसार के बंधन से कौन हीं छूट सकता। जिस समय शिशु कर्म योग द्वारा गर्भ से बाहर आता है उस समय भगवान विष्णु की माया से वह मोहित हो जाता है।
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मां बनने के लिए सही समय क्या है ???
बच्चे के जन्म की सही उम्र ??
 
मां बनना किसी महिला के‍ जीवन का काफी अहम पड़ाव माना जाता है। लेकिन, आखिर किस आयु-वर्ग में मां बनना किसी महिला और उसके होने वाले बच्‍चे के स्‍वास्‍थ्‍य के लिए सही रहेगा, इस बारे में अधिकतर महिलायें अनजान होती हैं। आइए जानने की कोशिश करते हैं कि आखिर मां बनने की सही उम्र क्‍या है तथा कम या अधिक उम्र में मां बनने के क्‍या नफे-नुकसान हैं।
क्‍या होती है गर्भधारण की सही उम्र
मां बनना शायद हर महिला का स्‍वप्‍न होता है। लेकिन बच्चा सही समय और उम्र में पैदा किया जाए यह बेहद जरूरी है। विशेषज्ञों के मुताबिक बच्चे को जन्म देने की सही उम्र 20 से 35 वर्ष के बीच होती है। इससे पूर्व या बाद में गर्भधारण करने पर गर्भस्थ शिशु में विकृति की आशंका ज्यादा होती है। ये विकृतियां क्रोमोसोम (गुणसूत्रों) या जीन में हुई किसी गड़बड़ी के कारण आ सकती हैं। इसलिए अधिक उम्र में गर्भ धारण करने से बचना चाहिए।
 
क्यों न करें कम या ज्यादा उम्र में गर्भधारण ??
 
जो महिलाएं 35 की उम्र के बाद या 18 साल की उम्र से पहले गर्भधारण करती हैं उनके बच्चों में मानसिक कमजोरी आ सकती है। साथ ही ऐसे बच्चे सामान्य पैदा हुए बच्चों की तुलना में शारीरिक और मानसिक तौर पर कमजोर भी होते हैं। यूं तो गर्भधारण की सही उम्र का कोई सटीक अंदाजा नहीं लगाया जा सकता, लेकिन कम से कम 30 की उम्र से पहले गर्भधारण कर लेना चाहिए। क्‍योंकि 35 की उम्र के बाद गर्भधारण करने के अवसर भी कम हो जाते हैं।
 
कम उम्र में मां बनने के जोखिम..???
संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या कोष (UNFPA) की रिपोर्ट के अनुसार प्रत्येक वर्ष 18 वर्ष से कम उम्र की करीब 73 लाख लड़कियां मां बनती हैं। जिसकी वजह से मां और बच्चा दोनों के स्वास्थ्य के लिए कई चुनौतियां पैदा हो जाती हैं। इन 73 लाख में से भी तकरीबन 20 लाख लड़कियां वे होती हैं जिनकी उम्र 14 वर्ष या उससे भी कम होती है। ऐसी लड़कियों को भविष्य में कई स्वास्थ्य समस्याएं हो जाती हैं जिसके सामाजिक कुपरिणाम भी होते हैं और इन लड़कियों की मौत होने का खतरा भी बढ़ जाता है।
क्या कहती है मेडिकल सांइस
मेडिकल सांइस के मुताबिक महिलाओं का शरीर 20 साल की उम्र शुरुआत से बच्चे को जन्म देने के लिए पूरी तरह तैयार रहता है। पर आधुनिक जीवनशैली अब विज्ञान के इस मत को झुठलाती जा रही है। सोच में आए इस बदलाव में काफी हद तक आधुनिक तकनीक का भी योगदान रहा है। आईवीएफ जैसे फर्टिलिटी ट्रीटमेंट्स अधिक उम्र में भी महिलाओं को मां बनने का अवसर प्रदान कर रहे हैं।
 
अधिक उम्र में गर्भधारण के जोखिम—
वे महिलाएं जो 35 वर्ष की आयु के बाद गर्भधारण करती है, उनमें गर्भपात का खतरा बढ़ जाता है। अधिक उम्र में प्रजनन शक्ति खो जाने के अलावा भी उच्‍च रक्‍तचाप और मधुमेह जैसी अन्य कई परेशानियां हो सकती हैं। जिससे आने वाले बच्‍चे को कई खतरे होते हैं।