महालय श्राद्ध पक्ष 2016

हिंदू पंचांग के अनुसार, भाद्रपद मास की पूर्णिमा से आश्विन मास की अमावस्या तक का समय श्राद्ध पक्ष कहलाता है। इस वर्ष श्राद्ध पक्ष का प्रारंभ 16 सितंबर, 2016 (पूर्णिमा,शुक्रवार) चंद्र ग्रहण से हो रहा है, जिसका समापन 30 सितंबर (अमावस्या,शुक्रवार) को होगा। हिंदू धर्म के अनुसार, इस दौरान पितरो की आत्मा की शांति के लिए तर्पण, श्राद्ध, पिंडदान आदि किया जाता है।हिन्दू धर्म अनुसार आश्विन माह के कृष्ण पक्ष को श्राद्ध पक्ष के रूप मे मनाया जाता है। श्राद्ध संस्कार का वर्णन हिंदु धर्म के अनेक धार्मिक ग्रंथों मे किया गया है। श्राद्ध पक्ष को महालय और पितृ पक्ष के नाम से भी जाना जाता है। श्राद्ध का अर्थ अपने देवताओ, पितरो, परिवार, वंश के प्रति श्रद्धा प्रकट करना होता है।
प्रतिवर्ष श्राद्ध को भाद्रपद माह की पूर्णिमा से लेकर आश्विन माह की अमावस्या तक मनाया जाता है। पूर्णिमा का श्राद्ध पहला और अमावस्या का श्राद्ध अंतिम होता है। जिस हिन्दु माह की तिथि के अनुसार व्यक्ति मृत्यु पाता है उसी तिथि के दिन उसका श्राद्ध मनाया जाता है। आश्विन कृष्ण पक्ष के 15 दिन श्राद्ध के दिन रहते है। जिस व्यक्ति की तिथि याद ना रहे तब उसके लिए अमावस्या के दिन उसका श्राद्ध करने का विधान होता है। पितृ पक्ष पन्द्रह दिन की समयावधि होती है जिसमे हिन्दु जन अपने पूर्वजो को भोजन अर्पण कर उन्हे श्रधांजलि देते है। ऎसी मान्यता है कि आश्विन कृष्ण पक्ष मे पितर पृथ्वी लोक पर आते है और अपने हिस्से का भाग अवश्य किसी ना किसी रुप मे ग्रहण करते है। सभी पितर इस समय अपने वंशजों के द्वार पर आकर अपने हिस्से का भोजन सूक्ष्म रुप मे ग्रहण करते है। भोजन मे जो भी खिलाया जाता है वह पितरो तक पहुंच ही जाता है। यहाँ पितरो से अभिप्राय ऎसे सभी पूर्वजो से है जो अब हमारे साथ नहीं है लेकिन श्राद्ध के समय वह हमारे साथ जुड़ जाते है और हम उनकी आत्मा की शांति के लिए अपनी सामर्थ्यानुसार उनका श्राद्ध कर के अपनी श्रद्धा को उनके प्रति प्रकट करते है ।
दक्षिणी भारतीय अमांत पञ्चाङ्ग के अनुसार पितृ पक्ष भाद्रपद के चन्द्र मास मे पड़ता है और पूर्ण चन्द्रमा के दिन या पूर्ण चन्द्रमा के एक दिन बाद प्रारम्भ होता है। उत्तरी भारतीय पूर्णीमांत पञ्चाङ्ग के अनुसार पितृ पक्ष अश्विन के चन्द्र मास मे पड़ता है और भाद्रपद मे पूर्ण चन्द्रमा के दिन या पूर्ण चन्द्रमा के अगले दिन प्रारम्भ होता है। यह चन्द्र मास की सिर्फ एक नामावली है जो इसे अलग-अलग करती है। उत्तरी और दक्षिणी भारतीय लोग श्राद्ध की विधि समान दिन ही करते है।हिंदू धर्म मे स्पष्ट रूप से बताया गया है कि जो स्वजन अपने शरीर को छोड़कर चले जाते है। वह चाहे किसी भी रूप मे अथवा किसी भी लोक मे हो, श्राद्ध पक्ष के समय पृथ्वी पर आते है तथा उनकी तृप्ति के लिए श्रद्धा के साथ जो शुभ संकल्प और तर्पण किया जाता है, वह श्राद्ध कहलाता है अत: मान्यता है कि पितृ पक्ष मे हम जो भी पितरो के नाम से तर्पण करते हैं उसे हमारे पितर सूक्ष्म रूप मे आकर अवश्य ग्रहण करते है। कुर्मपुराण मे कहा गया है कि ‘जो प्राणी जिस किसी भी विधि से एकाग्रचित होकर श्राद्ध करता है, वह समस्त पापों से रहित होकर मुक्त हो जाता है और पुनः संसार चक्र मे नहीं आता।’ गरुड़ पुराण के अनुसार ‘पितृ पूजन (श्राद्धकर्म) से संतुष्ट होकर पितर मनुष्यो के लिए आयु, पुत्र, यश, स्वर्ग, कीर्ति, पुष्टि, बल, वैभव, पशु, सुख, धन और धान्य देते है।
मार्कण्डेय पुराण के अनुसार ‘श्राद्ध से तृप्त होकर पितृगण श्राद्धकर्ता को दीर्घायु, सन्तति, धन, विद्या सुख, राज्य, स्वर्ग और मोक्ष प्रदान करते है। ब्रह्मपुराण के अनुसार ‘जो व्यक्ति शाक के द्वारा भी श्रद्धा-भक्ति से श्राद्ध करता है, उसके कुल मे कोई भी दुःखी नहीं होता।’ साथ ही ब्रह्मपुराण मे वर्णन है कि ‘श्रद्धा एवं विश्वास पूर्वक किए हुए श्राद्ध मे पिण्डो पर गिरी हुई पानी की नन्हीं-नन्हीं बूँदों से पशु-पक्षियों की योनि मे पड़े हुए पितरो का पोषण होता है। जिस कुल मे जो बाल्यावस्था मे ही मर गए हो, वे सम्मार्जन के जल से तृप्त हो जाते है। श्राद्ध का महत्व तो यहाँ तक है कि श्राद्ध मे भोजन करने के बाद जो आचमन किया जाता है तथा पैर धोया जाता है, उसी से पितृगण संतुष्ट हो जाते है। बंधु-बान्धवों के साथ अन्न-जल से किए गए श्राद्ध की तो बात ही क्या है, केवल श्रद्धा-प्रेम से शाक के द्वारा किए गए श्राद्ध से ही पितर तृप्त होते है। विष्णु पुराण के अनुसार श्रद्धायुक्त होकर श्राद्धकर्म करने से पितृगण ही तृप्त नहीं होते, अपितु ब्रह्मा, इंद्र, रुद्र, दोनों अश्विनी कुमार, सूर्य, अग्नि, अष्टवसु, वायु, विश्वेदेव, ऋषि, मनुष्य, पशु-पक्षी और सरीसृप आदि समस्त भूत प्राणी भी तृप्त होते है।हेमाद्रि नागरखंड के अनुसार एक दिन के श्राद्ध से ही पितृगण वर्षभर के लिए संतुष्ट हो जाते है, यह निश्चित है। यमस्मृति के अनुसार ‘जो लोग देवता, ब्राह्मण, अग्नि और पितृगण की पूजा करते है, वे सबकी अंतरात्मा मे रहने वाले विष्णु की ही पूजा करते है।’
देवलस्मृति के अनुसार ‘श्राद्ध की इच्छा करने वाला प्राणी निरोग, स्वस्थ, दीर्घायु, योग्य सन्तति वाला, धनी तथा धनोपार्जक होता है। श्राद्ध करने वाला मनुष्य विविध शुभ लोकों को प्राप्त करता है, परलोक मे संतोष प्राप्त करता है और पूर्ण लक्ष्मी की प्राप्ति करता है। अत्रिसंहिता के अनुसार ‘पुत्र, भाई, पौत्र (पोता), अथवा दौहित्र यदि पितृकार्य मे अर्थात्‌ श्राद्धानुष्ठान मे संलग्न रहें तो अवश्य ही परमगति को प्राप्त करते है। इसके अलावा भी अनेक वेदों, पुराणों, धर्मग्रंथों मे श्राद्ध की महत्ता व उसके लाभ का उल्लेख मिलता है। उपर्युक्त प्रमाणों से स्पष्ट होता है कि श्राद्ध फल से पितरो की ही तृप्ति नहीं होती, वरन्‌ इससे श्राद्धकर्ताओं को भी विशिष्ट फल की प्राप्ति होती है। अतः हमे चाहिए कि वर्ष भर मे पितरों की मृत्युतिथि को सर्वसुलभ जल, तिल, यव, कुश और पुष्प आदि से उनका श्राद्ध संपन्न करने और गो ग्रास देकर अपने सामर्थ्य अनुसार ब्राह्मणों को भोजन करा देने मात्र से ऋण उतर जाता है।
श्राद्ध करने वाले परिवार को प्रसन्नता एवं विनम्रता के साथ भोजन परोसना चाहिए। संभव हो तो जब तक ब्राह्मण भोजन ग्रहण करे, तब तक पुरुष सूक्त तथा पवमान सूक्त आदि का जप होते रहना चाहिए। भोजन कर चुके ब्राह्मणों के उठने के पश्चात श्राद्ध करने वाले को अपने पितृ से इस प्रकार प्रार्थना करनी चाहिए-
दातारो नोअभिवर्धन्तां वेदा: संततिरेव च॥
श्रद्घा च नो मा व्यगमद् बहु देयं च नोअस्तिवति।
अर्थात “पितृगण ! हमारे परिवार मे दाताओं, वेदों और संतानों की वृद्घि हो, हमारी आप मे कभी भी श्राद्ध न घटे, दान देने के लिए हमारे पास बहुत संपत्ति हो।” इसी के साथ उपस्थित ब्राह्मणो की प्रदक्षिणा के साथ उन्हें दक्षिणा आदि प्रदान कर विदा करे। श्राद्ध करने वाले व्यक्ति को बचे हुए अन्न को ही भोजन के रूप मे ग्रहण कर उस रात्रि ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करना चाहिए। श्राद्ध प्राप्त होने पर पितृ, श्राद्ध कार्य करने वाले परिवार मे धन, संतान, भूमि, शिक्षा, आरोग्य आदि मे वृद्धि प्रदान करते है। पिंडदान की परंपरा सृष्टि के रचनाकाल से ही शुरू है। जिसका वर्णन वायु पुराण, अग्नि पुराण और गरुण पुराण मे है। पिंडदान मोक्ष प्राप्ति का एक सहज और सरल मार्ग है।
दक्षिणाभिमुख होकर, आचमन कर अपने जनेऊ को दाएं कंधे पर रखकर चावल, गाय का दूध, घी, शकर एवं शहद को मिलाकर बने पिंडों को श्रद्धा भाव के साथ अपने पितरों को अर्पित करना पिंडदान कहलाता है। जल मे काले तिल, जौ, कुशा एवं सफेद फूल मिलाकर उस जल से विधि पूर्वक तर्पण किया जाता। मान्यता है कि इससे पितर तृप्त होते है। श्राद्ध के बाद ब्राह्मण को भोजन कराकर दी जाने वाली तृप्ति पितरो को भी संतुष्ट करती है। ज्योतिष शास्त्र के अनुसार, जिन लोगों की कुंडली मे कालसर्प दोष हो, वे अगर श्राद्ध पक्ष मे इस दोष के निवारण के लिए उपाय व पूजन करे तो शुभ फलो की प्राप्ति होती है तथा कालसर्प दोष के दुष्प्रभाव मे कमी आती है। ज्योतिष के अनुसार, कालसर्प दोष मुख्य रूप से 12 प्रकार का होता है, इसका निर्धारण जन्म कुंडली देखकर ही किया जा सकता है। प्रत्येक कालसर्प दोष के निवारण के लिए अलग-अलग उपाय है।
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♦ जानिए वर्ष 2016  मे श्राद्ध पक्ष की तिथियां :
१६ सितम्बर (शुक्रवार) पूर्णिमा श्राद्ध
१७ सितम्बर (शनिवार) प्रतिपदा श्राद्ध
१८ सितम्बर (रविवार) द्वितीया श्राद्ध
१९ सितम्बर (सोमवार) तृतीया श्राद्ध, चतुर्थी श्राद्ध
२० सितम्बर (मंगलवार) महा भरणी, पञ्चमी श्राद्ध
२१ सितम्बर (बुधवार) षष्ठी श्राद्ध
२२ सितम्बर (बृहस्पतिवार) सप्तमी श्राद्ध
२३ सितम्बर (शुक्रवार) अष्टमी श्राद्ध
२४ सितम्बर (शनिवार) नवमी श्राद्ध
२५ सितम्बर (रविवार) दशमी श्राद्ध
२६ सितम्बर (सोमवार) एकादशी श्राद्ध
२७ सितम्बर (मंगलवार) द्वादशी श्राद्ध
२८ सितम्बर (बुधवार) मघा श्राद्ध, त्रयोदशी श्राद्ध
२९ सितम्बर (बृहस्पतिवार) चतुर्दशी श्राद्ध
३० सितम्बर (शुक्रवार) सर्वपित्रू अमावस्या
पितृ पक्ष का अन्तिम दिन सर्वपित्रू अमावस्या या महालय अमावस्या के नाम से जाना जाता है। पितृ पक्ष मे महालय अमावस्या सबसे मुख्य दिन होता है।
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♦ संक्षिप्त पितृ तर्पण विधि:
पितरो का तर्पण करनेके पूर्व इस मन्त्र से हाथ जोडकर प्रथम उनका आवाहन करे –
ॐ आगच्छन्तु मे पितर इमं गृह्णन्तु जलान्जलिम ।
अब तिलके साथ तीन-तीन जलान्जलियां दे – (पिता के लिये) अमुकगोत्रः अस्मत्पिता अमुक (नाम) शर्मा वसुरूपस्तृप्यतामिदं तिलोदकं (गंगाजलं वा) तस्मै स्वधा नमः, तस्मै स्वधा नमः, तस्मै स्वधा नमः । (माता के लिये) अमुकगोत्रा अस्मन्माता अमुकी (नाम) देवी वसुरूपा तृप्यतामिदं तिलोदकं तस्यै स्वधा नमः, तस्यै स्वधा नमः, तस्यै स्वधा नमः।
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♦ श्राद्ध पक्ष मे क्या करे?
पितरो की संतुष्टि हेतु विभिन्न पित्र-कर्म का विधान है। पुराणोक्त पद्धति से निम्नांकित कर्म किए जाते है :-
♦ एकोदिष्ट श्राद्ध, पार्वण श्राद्ध
♦ नाग बलि कर्म
♦ नारायण बलि कर्म
♦ त्रिपिण्डी श्राद्ध
♦ महालय श्राद्ध पक्ष मे श्राद्ध कर्म
इसके अलावा प्रत्येक मांगलिक प्रसंग मे भी पितरों की प्रसन्नता हेतु ‘नांदी-श्राद्ध’ कर्म किया जाता है। दैनंदिनी जीवन, देव-ऋषि-पित्र तर्पण किया जाता है।
उपरोक्त कर्मों हेतु विभिन्न संप्रदायो मे विभिन्न प्रचलित परिपाटियाँ चली आ रही है। अपनी कुल-परंपरा के अनुसार पितरों की तृप्ति हेतु श्राद्ध कर्म अवश्य करना चाहिए।
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♦ कैसे करे श्राद्ध कर्म :
महालय श्राद्ध पक्ष मे पितरो के निमित्त घर मे क्या कर्म करना चाहिए। यह जिज्ञासा सहजतावश अनेक व्यक्तियों मे रहती है। यदि हम किसी भी तीर्थ स्थान, किसी भी पवित्र नदी, किसी भी पवित्र संगम पर नहीं जा पा रहे है तो निम्नांकित सरल एवं संक्षिप्त कर्म घर पर ही अवश्य कर ले :-
प्रतिदिन खीर (अर्थात्‌ दूध मे पकाए हुए चावल मे शकर एवं सुगंधित द्रव्य जैसे इलायची केशर मिलाकर तैयार की गई सामग्री को खीर कहते हैं) बनाकर तैयार कर ले। गाय के गोबर के कंडे को जलाकर पूर्ण प्रज्वलित कर ले। उक्त प्रज्वलित कंडे को शुद्ध स्थान मे किसी बर्तन मे रखकर, खीर से तीन आहुति दे दे। इसके नजदीक (पास मे ही) जल का भरा हुआ एक गिलास रख दे अथवा लोटा रख दे। इस द्रव्य को अगले दिन किसी वृक्ष की जड़ मे डाल दे। भोजन मे से सर्वप्रथम गाय, काले कुत्ते और कौए के लिए ग्रास अलग से निकालकर उन्हे खिला दे।
इसके पश्चात ब्राह्मण को भोजन कराएँ फिर स्वयं भोजन ग्रहण करे। पश्चात ब्राह्मणो  को यथायोग्य दक्षिणा दे।

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♦ श्राद्ध कब और कौन करे : 
माता-पिता की मरणतिथि के मध्याह्न काल मे पुत्र को श्राद्ध करना चाहिए।
जिस स्त्री के कोई पुत्र न हो, वह स्वयं ही अपने पति का श्राद्ध कर सकती है।
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♦ जानिए श्राद्ध पक्ष मे काले तिल, शहद और कुश का महत्व :
काले तिल, शहद और कुश को तर्पण व श्राद्धकर्म मे सबसे जरूरी है। माना जाता है कि तिल और कुश दोनों ही भगवान विष्णु के शरीर से निकले है और पितरो को भी भगवान विष्णु का ही स्वरूप माना गया है। गरुड़ पुराण के अनुसार तीनो देवता ब्रह्मा, विष्णु, महेश कुश मे क्रमश: जड़, मध्य और अग्रभाग मे रहते है।कुश का अग्रभाभ देवताओ का, मध्य मनुष्यो का और जड़ पितरो का माना जाता है। वहीं तिल पितरो को प्रिय और दुष्टात्माओ को दूर भगाने वाले माने जाते है। श्राद्ध एवं तर्पण क्रिया मे काले तिल का बड़ा महत्व है। कहते है तिल का दान कई सेर सोने के दान के बराबर है। इनके बिना पितरो को जल भी नहीं मिलता। दान करते समय भी हाथ मे काला तिल जरूर रखना चाहिए इससे दान का फल पितरों एवं दान कर्ता दोनो को प्राप्त होता है। इसके अलावा शहद, गंगाजल, जौ, दूध और घृत इन सात पदार्थ को श्राद्धकर्म के लिए महत्वपूर्ण माना गया है।पितरों की तृप्ति के लिए नित्य तर्पण कर सकते है- पूर्व दिशा मे देवताओ का तर्पण, उत्तर दिशा मे ऋषियो का तर्पण और दक्षिण दिशा मे यम तर्पण के साथ पितरों को प्रसन्न रखा जा सकता है।
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♦ जानिए पिंड दान के प्रकार : 
12 तरह के पिंडदान
1.प्रथम पिण्ड देवताओ के निमित्त
2.दूसरा पिण्ड ऋषियो के निमित्त
3.तीसरा पिण्ड दिव्य मानवो के निमित्त
4.चौथा पिण्ड दिव्य पितरो के निमित्त
5.पांचवां पिण्ड यम के निमित्त
6.छठवां पिण्ड मनुष्य-पितरो के निमित्त
7.सातवां पिण्ड मृतात्मा के निमित्त
8.आठवां पिण्ड पुत्रदार रहितो के निमित्त
9.नौवां पिण्ड उच्छिन्ना कुलवंश वालो के निमित्त
10.दसवां पिण्ड गर्भपात से मर जाने वालो के निमित्त
11.ग्यारहवां पिण्ड इस जन्म या अन्य जन्म के बंधुओं के निमित्त
12.बारहवां पिण्ड अपने अज्ञात पूवजों व बंधुओं के निमित्त
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♦ पितरो का काल :
भाद्रपद माह के शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा से पितरो का काल आरम्भ हो जाता है। यह ‘सर्वपितृ अमावस्या’ तक रहता है। जो व्यक्ति पितृपक्ष के पन्द्रह दिनो तक श्राद्ध, तर्पण आदि नहीं कर पाते है और जिन पितरों की मृत्यु तिथि याद न हो, उन सबके श्राद्ध, तर्पण इत्यादि इसी अमावस्या को किये जाते है। इसलिए सर्वपितृ अमावस्या के दिन पितर अपने पिण्डदान एवं श्राद्ध आदि की आशा से विशेष रूप से आते है। यदि उन्हे वहाँ पिण्डदान या तिलांजलि आदि नहीं मिलती तो वे अप्रसन्न होकर चले जाते है, जिससे आगे चलकर पितृदोष लगता है और इस कारण अनेक कठिनाइयो का सामना करना पड़ता है।
[1] पितर विदा करने की अंतिम तिथि सर्वपितृ अमावस्या पितरो को विदा करने की अंतिम तिथि होती है। 15 दिन तक पितृ घर मे विराजते है और हम उनकी सेवा करते हैं। ‘सर्वपितृ अमावस्या’ के दिन सभी भूले-बिसरे पितरो का श्राद्ध कर उनसे आशीर्वाद की कामना की जाती है। ‘सर्वपितृ अमावस्या’ के साथ ही 15 दिन का श्राद्ध पक्ष खत्म हो जाता है। आश्विन माह के कृष्ण पक्ष की समाप्ति के बाद अगले दिन से ‘नवरात्र’ प्रारंभ होते है। ‘सर्वपितृ अमावस्या’ पर हम अपने उन सभी प्रियजनों का श्राद्घ कर सकते है, जिनकी मृत्यु की तिथि का ज्ञान हमें नहीं है। [2] वे लोग जो किसी दुर्घटना आदि मे  मृत्यु को प्राप्त होते है, या ऐसे लोग जो हमारे प्रिय होते है किंतु उनकी मृत्यु तिथि हमे ज्ञात नहीं होती तो ऐसे लोगों का भी श्राद्ध इस अमावस्या पर किया जाता है।
♦ महालय श्राद्ध :
इस अमावस्या पर ‘महालय श्राद्ध’ भी किया जाता है। ‘महा’ से अर्थ होता है- ‘उत्सव दिन’ और ‘आलय’ से अर्थ है- ‘घर’ अर्थात कृष्ण पक्ष में पितरों का निवास माना गया है। इसलिए इस काल में पितरों की तृप्ति के लिए श्राद्ध किए जाते है, जो ‘महालय’ भी कहलाता है। यदि कोई परिवार पितृदोष से कलह तथा दरिद्रता से गुजर रहा हो और पितृदोष शांति के लिए अपने पितरों की मृत्यु तिथि मालूम न हो तो उसे सर्वपितृ अमावस्या के दिन पितरो का श्राद्ध-तर्पणादि करना चाहिए,जिससे पितृगण विशेष प्रसन्न होते है और यदि पितृदोष हो तो उसके प्रभाव मे भी कमी आती है।
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‘मनुस्मृति’, ‘याज्ञवलक्यस्मृति’ जैसे धर्म ग्रंथों मे ही नहीं, वरन पुराणो आदि मे भी श्राद्ध को महत्त्वपूर्ण कर्म बताते हुए उसे करने के लिए प्रेरित किया गया है।
‘गरुड़पुराण’ के अनुसार विभिन्न नक्षत्रों मे किये गए श्राद्धों का फल निम्न प्रकार मिलता है-
कृत्तिका नक्षत्र मे किया गया श्राद्ध समस्त कामनाओं को पूर्ण करता है। रोहिणी नक्षत्र मे श्राद्ध होने पर संतानसुख, मृगशिरा नक्षत्र मे गुणों मे वृद्धि, आर्द्रा नक्षत्र मे ऐश्वर्य पुनर्वसु नक्षत्र मे सुंदरता, पुष्य नक्षत्र मे अतुलनीय वैभव, आश्लेषा नक्षत्र मे दीर्घायु मघा नक्षत्र मे अच्छी सेहत, पूर्वाफाल्गुनी नक्षत्र मे अच्छा सौभाग्य, हस्त नक्षत्र मे विद्या की प्राप्ति, चित्रा नक्षत्र मे प्रसिद्ध संतान, स्वाति नक्षत्र मे व्यापार मे लाभ, विशाखा नक्षत्र मे वंश वृद्धि ,अनुराधा नक्षत्र मे उच्च पद प्रतिष्ठा, ज्येष्ठा नक्षत्र मे उच्च अधिकार भरा दायित्व, मूल नक्षत्र मे मनुष्य आरोग्य प्राप्त करता है।
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♦ पितृऋण से मुक्ति का साधन: 
सामान्यत: जीव के जरिए इस जीवन मे पाप और पुण्य दोनों होते है। पुण्य का फल है स्वर्ग और पाप का फल है नरक। अपने पुण्य और पाप के आधार पर स्वर्ग और नरक भोगने के पश्चात् जीव पुन: अपने कर्मों के अनुसार चौरासी लाख योनियों म भटकने लगता है। जबकि पुण्यात्मा मनुष्य या देव योनि को प्राप्त करते हैं। अत: भारतीय सनातन संस्कृति के अनुसार पुत्र-पौत्रादि का कर्तव्य होता है कि वे अपने माता-पिता और पूर्वजों के निमित्त कुछ ऐसे शास्त्रोक्त कर्म करें, जिससे उन मृत प्राणियों को परलोक मे अथवा अन्य योनियो मे भी सुख की प्राप्ति हो सके। इसलिए भारतीय संस्कृति एवं सनातन धर्म मे पितृऋण से मुक्त होने के लिए श्राद्ध करने की अनिवार्यता बताई गई है। वर्तमान समय मे अधिकांश मनुष्य श्राद्ध करते तो है, मगर उनमे से कुछ लोग ही श्राद्ध के नियमो का पालन करते है। किन्तु अधिकांश लोग शास्त्रोक्त विधि से अपरिचित होने के कारण केवल रस्मरिवाज की दृष्टि से श्राद्ध करते है।
♦ श्राद्ध पूजन :
वस्तुत: शास्त्रोक्त विधि से किया हुआ श्राद्ध ही सर्वविधि कल्याण प्रदान करता है। अत: प्रत्येक व्यक्ति को श्रृद्धापूर्वक शास्त्रोक्त विधि से श्राद्ध सम्पन्न करना चाहिए। जो लोग शास्त्रोक्त समस्त श्राद्धों को न कर सके, उन्हे कम से कम आश्विन मास मे पितृगण की मरण तिथि के दिन श्राद्ध करना चाहिए। यद्यपि प्रत्येक अमावस्या पितरो की पुण्य तिथि होती है, लेकिन आश्विन मास की अमावस्या पितरो के लिए परम फलदायी मानी गई है। इस अमावस्या को ‘सर्वपितृ अमावस्या’ अथवा ‘महालया’ के नाम से भी जाना जाता है।
जो व्यक्ति पितृपक्ष के पन्द्रह दिनो तक श्राद्ध, तर्पण आदि नहीं कर पाते अथवा जिन पितरों की मृत्यु तिथि याद न हो, उन सबके निमित्त श्राद्ध, तर्पण, दान आदि इसी अमावस्या को किया जाता है। शास्त्रीय मान्यता है कि अमावस्या के दिन पितर अपने पुत्रादि के द्वार पर पिण्डदान एवं श्राद्ध आदि की आशा से आते है। यदि उन्हें वहाँ पिण्डदान या तिलांजलि आदि नहीं मिलती, तो वे अप्रसन्न होकर चले जाते है, जिससे जीवन मे पितृदोष के कारण अनेक कठिनाइयों और विघ्न बाधाओं का सामना करना पड़ता है।
by Pandit Dayanand Shastri.